वसई किला

मुंबई शहर महाराष्ट्र के तटीय-रेखा पर स्थित है। मुम्बई की सुरक्षा के लिए इतिहास में कई किलों का निर्माण किया गया। उनमें से एक वसई किला है, जिसे बस्सीन किला भी कहा जाता है। मुम्बई, ठाणे और साश्ती के आसपास के क्षेत्रों की सैन्य सुरक्षा के लिए यह काफी महत्वपूर्ण है। उत्तरी मुंबई के वसई उपनगर में स्थित इस किले की दीवारों के यद्यपि खंडहर ही अब अवशेष हैं, फिर भी इसका वास्तु चमत्कार आपको आश्चर्यचकित कर देगा। अपने रणनीतिक स्थिति के कारण, यह किला कई युद्धों का गवाह बना। 18 वीं शताब्दी की शुरुआत तक यह पुर्तगाली सेना के नियंत्रण में था। बाजीराव पेशवा के नेतृत्व में मराठा साम्राज्य ने इस पर आधिपत्य के लिए कुछ लड़ाइयां लड़ीं। वर्ष 1737 के शुरुआती असफल प्रयासों के बाद, वसई पर कब्जा करने के लिए मराठा नेता चिमजियाप्पा को यह काम सौंपा गया। बहुत सारे अनुसंधान और सैन्य सर्वेक्षणों के बाद एक तेज और सुनियोजित छापामार अभियान के बाद मराठा सेना ने अंततः वर्ष 1739 में इस किले पर कब्जा कर लिया। ताड़ के बड़े पेड़ों के छाया तले इस किले के खंडहरों में प्रार्थना कक्ष, निगरानी बुर्ज और सीढ़ियों के अवशेष उस समय की कई कहानियां बयां करते हैं। पुर्तगाली बस्ती होने के कारण कुछ नक्काशीदार लैटिन कब्रें भी यहां हैं। एक प्राचीन चर्च के अवशेष भी यहां देखे जा सकते हैं। यहां के प्राचीर, मेहराब और निगरानी बुर्ज अत्यधिक सुंदर हैं। बहुत से पर्यटक अपनी शादी की तस्वीरें यहां बनाना पसंद करते हैं। जंगली ऊंची-ऊंची वनस्पतियां तथा नारियल एवं ताड़ के पेड़ों के आवरण इस जंगल की सुंदरता को और बढ़ा देते हैं। यहां कुछ रास्ते हैं जिनसे होकर आप किले के किनारे तक पहुंच जायेंगे, जहां से उल्हास नदी और डूबते सूरज के दिलकश नज़ारे दिखाई देते हैं। किले का उपयोग 'जोश', 'खामोशी' और राम गोपाल वर्मा की 'आग' जैसी कई बॉलीवुड फिल्मों के लिए भी किया गया है।

वसई किला

नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट- एन.जी.एम.ए.

नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट की बिल्डिंग कभी एक लोकप्रिय पब्लिक हॉल हुआ करती थी, जिसे एक पारसी उद्योगपति, सर कोवासजी जहांगीर द्वारा मुंबई को दान किया गया था। अपने संस्थापक के सम्मान में सर सी. जे. हॉल के रूप में जानी जाने वाली, इस इमारत ने अपने सुनहरे दिनों में एक ऑडिटोरियम के रूप में काम किया, जिसमें मेन स्टेज के ऊपर घोड़े की नाल के आकार वाली बाल्कनी हुआ करती थीं। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा आयोजित स्वतंत्रता रैलियों से लेकर यहूदी मीनू और पॉल रॉबसन जैसे संगीतकारों के संगीत समारोहों और पारसी पंचायत की बैठकों तक, यह इमारत भारतीय इतिहास के कई महत्वपूर्ण लम्हों की गवाह रही है। इसे स्कॉटिश आर्किटेक्ट जॉर्ज विटेट (1878-1926) ने डिजाइन किया था। उस समय मुंबई (तब बम्बई) का एकमात्र अन्य सार्वजनिक टाउन हॉल था और यह नया सार्वजनिक हॉल जल्द ही शहर की संस्कृति का केंद्र बन गया, जहां शहर के बड़े-बड़े लोग अक्सर आया करते थे। लेकिन एयर कंडीशनिंग, बेहतर साउंड, लाइटिंग और अन्य सुविधाओं वाली जगहों के आने से इसे जल्द ही भुला दिया गया। इसके बाद हॉल को केवल बॉक्सिंग मैच, शादी के रिसेप्शन और चमड़े के सामान की बिक्री के लिए बुक किया जाता रहा। आर्टिस्ट समुदाय ने इस इमारत के संस्कृति वाले स्थान से बाज़ार बन जाने का जमकर विरोध किया। आर्टिस्ट समुदाय के प्रयासों के कारण, यहां एक 12 साल लंबा मरम्मत कार्य किया गया। हम इसे नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट के नाम से जानते हैं। यह भारत के कला आंदोलन का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी बना। जीर्णोद्धार का काम वास्तुकार रोमी खोसला को सौंपा गया था। आज, एन.जी.एम.ए में पांच एग्जिबिशन गैलरी, एक लेक्चर ऑडिटोरियम, एक पुस्तकालय, कैफेटेरिया, कार्यालय और एक बड़ा स्टोरेज स्पेस है। इस एग्जिबिशन स्पेस में नियमित रूप से अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र के कलाकारों के काम के साथ-साथ कई पेंटिंग और मूर्तिकला भी प्रदर्शित की जाती हैं।

नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट- एन.जी.एम.ए.

छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस

यह एक ऐतिहासिक महत्व वाला स्मारक है, जो दुनिया के बेहतरीन रेलवे स्टेशनों में से एक है। छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस में रोजाना 3 मिलियन से भी अधिक यात्री आते हैं। महारानी विक्टोरिया के ब्रिटिश राज के पचास वर्ष होने पर गोल्डन जुबली दिवस (वर्ष 1887) पर, उनके सम्मान में इस रेलवे टर्मिनस का नाम 'विक्टोरिया टर्मिनस' कर दिया गया था। बाद में वर्ष 1996 में इसे मराठा साम्राज्य के संस्थापक के सम्मान में 'छत्रपति शिवाजी टर्मिनस' कर दिया गया और वर्तमान (2017) में इसे 'छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस' के नाम से ही जाना जाता है। ये इस उपमहाद्वीप का सबसे पहला टर्मिनस स्टेशन था। इसे ब्रिटिश वास्तुकारों और भारतीय शिल्पकारों ने मिलकर बनाया था। यह विक्टोरियन गोथिक पुनर्जागरण वास्तुकला और पारंपरिक भारतीय वास्तुकला के मेल का एक अनूठा उदाहरण है। इसने उस समय के बॉम्बे को एक अलग पहचान दी थी। ब्रिटिश वास्तुकार एफ डब्ल्यू स्टीवंस द्वारा डिजाइन की गई इस संरचना को, शानदार पत्थर के गुंबद, कैंटिलीवरी सीढ़ियां, सजावटी बुर्ज, अनोखे स्तंभों, नुकीले आर्च, ऊंची छतों और विशाल सजावटी मूर्तियों और नक्काशियों के लिए जाना जाता है। इमारत के मुख्य द्वार पर दो स्तंभ हैं, जिसमें एक पर ब्रिटेन के प्रतीक बैठे हुए शेर की मूर्ति है और दूसरे स्तंभ पर भारत का प्रतीक दुबककर बैठे हुए चीते की मूर्ति है। इसके सामने के हिस्से अनेक मूर्तियों से सजे हैं, जैसे बाहर की ओर झांकते गोरगोइल के सिर, छलांग लगाते ग्रिफ़िन, खुले पंखों वाले मोर और एक नेवले के साथ लड़ता कोबरा। अपनी विस्तृत, जटिल और पत्थर की 3-डी नक्काशी वाली सजावट के कारण, टर्मिनस को बनने में लगभग 10 साल लग गए। सपनों के शहर के नाम से प्रसिद्ध मुंबई में हर दिन सैंकड़ों लोग आते हैं और इसमे से ज़्यादातर यहां ट्रेन के ज़रिए पहुंचते हैं। ये लोग आमतौर पर इसी राजसी और अद्भुत दिखने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस को सबसे पहले देखते हैं। इनमें से कईयों ने इस विशाल विरासत स्थल के उन पर पड़े प्रभावों के बारे में लिखा है।

छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस

एलिफेंटा की गुफाएं

मुंबई की बेहतरीन चीजों में से एक यहां का समुद्र है। इसके आस पास के बीच और द्वीप घूमने-फिरने के लिए काफ़ी पसंद किए जाते हैं। गेटवे ऑफ इंडिया से नाव द्वारा एक घंटे से भी कम की दूरी पर कोलाबा में स्थित, एलिफेंटा द्वीप मौजूद है। इसे आम बोलचाल की भाषा में 'घारपुरी' यानी किलों के शहर के नाम से जाना जाता है। ये सुंदर द्वीप 10 से 15 किमी तक फैले हुए हैं। इसमें आम, इमली और ताड़ के कई पेड़ हैं। वीकेंड पर घूमने, ट्रेकिंग और पिकनिक के लिए ये जगह बिल्कुल सही है। इस द्वीप का नामकरण 16वीं शताब्दी के पुर्तगाली खोजकर्ताओं द्वारा खोजी गई, हाथी की एक विशाल पत्थर की मूर्ति से किया गया है। यह द्वीप विश्व भर में अपनी प्राचीन शैलकृत गुफाओं की श्रंखला के लिए मशहूर है, जिन्हें एलीफेंटा गुफाओं के नाम से जाना जाता है। ये गुफाएं हिंदू और बौद्ध देवताओं को समर्पित हैं और इनकी दीवारें नक्काशी और मूर्तियों से भरी हैं। इन गुफाओं को वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स की सूची में शामिल किया गया था। ये गुफाएं एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित हैं। गुफाओं की दीवारों पर 5वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 6वीं शताब्दी तक की प्राचीन रॉक-आर्ट पाई जाती है। द्वीप पर दो मुख्य पहाड़ियां हैं-गन हिल और स्तूप हिल। गन हिल का नाम यहां रखी ब्रिटिश-युग की दो तोपों पर रखा गया है और स्तूप हिल का नाम उन बौद्ध स्तूप के अवशेषों पर रखा गया है जो यहां खुदाई के दौरान पाए गए थे। एलिफेंटा नेटवर्क की सबसे अधिक विस्तृत और सुंदर वास्तुकला वाली गुफा, गन हिल पर स्थित है। इन गुफाओं के फलक, शैव सम्प्रदाय के गूढ़ पशुपति संप्रदाय के जीवन और मान्यताओं को दर्शाते हैं। सदाशिव नामक 7 मीटर ऊंची एक संरचना गुफा के द्वार पर स्थित है।

एलिफेंटा की गुफाएं

गेटवे ऑफ इंडिया

यह महान ऐतिहासिक स्मारक, अपने नाम को सही साबित करती है। मुंबई आने वाले पर्यटक अक्सर घूमने की शुरुआत गेटवे ऑफ़ इंडिया से ही करते हैं। मुंबई की ज़्यादातर खूबसूरत तस्वीरों में दिखने वाले इस स्मारक को देखने दुनिया भर से लाखों लोग आते हैं। जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि 'जब मुंबई में हों, तब वही करें जो फिल्मी सितारे करते हैं', कई पर्यटकों को यहां के परिसर में बीज चुगने आने वाले कबूतरों के झुंड के बीच दौड़ते हुए एक-दूसरे की तस्वीरें क्लिक करते देखा जा सकता है। इस स्मारक को किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी के बॉम्बे आने पर एक विजय स्मारक के रूप में बनाया गया था और आज भी ये मुंबई की छवि पर एकदम सटीक बैठता है। इसका मेहराब 26 मीटर ऊंचा है और चार बुर्जों से जुड़ा हुआ है, जिनके पत्थरों पर जटिल जालीदार काम के साथ नक्काशी की गई है। अकेले इस मेहराब को ही 21 लाख रुपये की लागत से बनाया गया था। यह इंडो सरसेनिक शैली में बनाया गया है, हालांकि इसके डिजाइन में गुजराती शैली की झलक भी मिलती है। पुराने समय में, गेटवे ऑफ इंडिया पश्चिम से आने वाले लोगों के आगमन की जगह हुआ करता था। विडंबना यह है कि जब वर्ष 1947 में ब्रिटिश राज खत्म हुआ, तो अंतिम ब्रिटिश जहाज भी इसी कोलोनियल सिम्बल से इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। मुंबई के इस अनोखे लैंडमार्क के पूरब में विशाल अरब सागर है और इसे रात में समुद्र के साथ देखने का अलग ही मज़ा है। जिनके पास थोड़ा अधिक समय होता है, वे गेटवे ऑफ इंडिया पर प्राइवेट नाव भी बुक कर सकते हैं, जिससे कि वे मुंबई की चमचमाती क्षितिज पर ढलते सूरज का अच्छे से आनंद ले सकते हैं।

गेटवे ऑफ इंडिया