200 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थित और 95 हेक्टेयर में फैला, दौलताबाद का किला डेक्कन की दृढ़ता और रणनीतिक विद्वता का प्रतीक है। इसके चारों ओर और इसके अंदर एक मजबूत रक्षा प्राचीर होने के कारण, इस किले को अभेद्य माना जाता था। महाकोट, यानी 54 गढ़ों वाली चार अलग-अलग दीवारें किले को घेरे रखती हैं जिसका घेरा लगभग 5 किमी का है। दीवारें लगभग 6 से 9 फुट मोटी और 18 से 27 फुट ऊंची हैं। परिसर में मौजूद गोला-बारूद और अनाज के भंडार इस ऐतिहासिक और मज़बूत संरचना की सैर को और भी रोमांचक बना देते हैं। इसकी एक और दिलचस्प विशेषता है हाथी हौद, एक विशाल पानी की टंकी जिसकी क्षमता लगभग 10,000 घन मीटर है। आज, ये विशाल टंकी सभी को आश्चर्यचकित कर देती है। यहां आप 30 फुट ऊंचे चांद मीनार को भी देख सकते है। यहां की तुगलक युग का शाही स्नान की अनोखी और अति सुन्दर संरचना भी देखने योग्य है। इसमें मालिश कराने के कमरे, गर्म पानी और भाप से स्नान के लिए भी कमरे हैं, जिनके लिए पानी को अच्छे से व्यवस्थित टंकियों, नहरों, नलिकाओं और वेंटिलेटर आदि से पहुंचाया जाता था।पर्यटकों को यहां किले के कई हिस्सों के अवशेष देखने को मिल सकते हैं, जैसे किले के बाहर की खाई, किलेबंदी की दीवारें, सीढ़ियों वाले कुएं, दरबार की इमारत, भारत माता को समर्पित एक अनूठा मंदिर, प्रजा के लिए एक सार्वजनिक दीवान/कक्ष, पानी के कुंड और पत्थरों को काट कर बनाया मार्ग। हाल ही में की गई खुदाई से शहर का एक निचला हिस्सा भी सामने आया जिनमें कई बड़े मार्ग और गलियां थी।औरंगाबाद से एलोरा के रास्ते पर स्थित इस किले का निर्माण एक यादव शासक, राजा भिल्मा 5, ने वर्ष 1187 में करवाया था। इस शहर को तब देवगिरि, यानी देवताओं के पहाड़ी निवास के रूप में जाना जाता था। इसके सामरिक महत्व के कारण, इस भव्य किले को जीतने की लालसा कई प्रभावशाली शासकों में पूरे इतिहास में रही। दिल्ली के शासक मुहम्मद तुगलक इस किले से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने शहर का नाम बदलकर दौलताबाद, यानी धन का शहर, रख दिया और अपने दरबार और राजधानी को यहीं लाने का फैसला किया। दिल्ली की पूरी आबादी को यहां लाया गया था। बाद में यह बहमानी शासकों के तहत हसन गंगू से लेकर अहमदनगर के निज़ाम शाहियों के अधिकार में रहा। इसके बाद भी, मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने इस किले पर कब्ज़ा करने से पहले इसकी चार महीने तक घेराबंदी की थी। बाद में मराठों ने इसे हथिया लिया था और फिर वर्ष 1724 ई. में हैदराबाद के निज़ामों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया।

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