राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में पहाड़ियों की सुरम्य ऊँचाइयों पर बसा है भारत का सबसे बड़ा किला परिसर, जिसका विस्तार वहाँ तक व्याप्त है जहाँ तक आपकी नज़र जा सकती है। प्रख्यात अरावली पर्वत श्रृंखला में स्थित चित्तौड़गढ़ के ठीक पास से प्राचीन बेरच नदी गुज़रती है, और इस नगर के वीर राजपूत योद्धाओं के अदम्य शौर्य के क़िस्से तथा यहाँ की संत-महारानी मीरा बाई की अटूट कृष्ण भक्ति में पगे हुए मार्मिक भजनों मधुर धुनें इस शहर की हवाओं में आज भी बहती प्रतीत होती हैं। इस शहर की ऐतिहासिक भव्यता के जीवंत प्रतीक हैं इसके अद्भुत और भव्य राजसी स्मारक, जिनका निर्माण इस क्षेत्र को अपनी राजधानी बनाने वाले मेवाड़ के सिसोदिया राजपूतों ने बड़े चाव से करवाया था। 

आत्मसमर्पण करने की बजाय हँसते-हँसते युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के लिए प्रख्यात रहे राजपूतों के गौरव के प्रतीक चित्तौड़गढ़ पर 1303, 1535, और 1567-68 में तीन बार हमला किया गया। हर बार दुश्मन ने पहले से अधिक क्रूर, दुर्दांत व धूर्तता के साथ हमला किया। हालाँकि इन युद्धों में हर बार चित्तौड़गढ़ को विजय प्राप्त नहीं हुई, लेकिन उन युद्धों में वीरगति के सर्वोच्च गौरव को प्राप्त हुई उन बहादुर हुतात्माओं ने बलिदान के ऐसे अद्भुत प्रतिमान स्थापित किए कि वे युगों-युगों तक के लिए इस क्षेत्र के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ गए हैं। जहाँ एक ओर वह पराक्रमी पुरुष योद्धाओं ने बर्बर शत्रुओं के विरुद्ध अपने शरीर में खून की आखिरी बूंद बाक़ी रहने तक वीरतापूर्वक युद्ध लड़ते रहे, वहीं उनके रणभूमि में लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त होने पर उनकी स्त्रियों ने अपनी मर्यादा की रक्षा हेतु पवित्र आग में कूदकर अनगिनत जौहर किए। यहाँ सबसे पहला हमला 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने किया था। इसके बाद इस किले पर 1535 में दूसरा हमला गुजरात के बहादुर शाह ने किया, और आखिरकार अकबर ने 1568 में इस किले को जीत लिया था। इस आख़िरी हमले के बाद राणा उदयसिंह ने यहाँ से मेवाड़ की ओर प्रस्थान किया तथा वहाँ पर उदयपुर में अपनी नई राजधानी स्थापित की। कालांतर में, सन 1616 में मुगल बादशाह जहांगीर ने चित्तौड़ का किला राजपूतों को वापस कर दिया।