लोसर

 नए साल की खुशियां मनाने के लिए लोसर महोत्सव को सभी मठों में फरवरी में मनाया जाता है। इस दिन लोग दलाई लामा की पूजा करते हैं और उनका सम्मान करने के लिए एक बड़ी रैली निकाली जाती है। इस महोत्सव में शैलीबद्ध छम नृत्य भी किया जाता है, जिसमें प्रतिभागी सजावटी वेशभूषा और मुखौटे पहनते हैं।

 लोसर

देछांग

देछांग महोत्सव को सबसे ठंडे महीने दिसंबर और जनवरी में मनाया जाता। यह एक सामुदायिक उत्सव है जहां लोग एक साथ मिलते हैं और आनंद मनाते हैं।

 देछांग

गोथसी

यह त्यौहार उन परिवारों द्वारा मनाया जाता है जहां बीते एक साल में किसी बालक (पुत्र) का जन्म हुआ हो। समारोह में चार लोग एक बड़ी थाली से सत्तू (भुना हुआ जौ) का आटा उठाते हैं और देवता के सामने रखते हैं। घर की युवा लड़की किसी खास पोषाक में इन पुरुषों के साथ छांग (एक स्थानीय पेय) से भरा बर्तन ले कर साथ-साथ चलती है। दो और आदमी देवदार की छड़ियों और देवदार की पत्तियों को मेमने की खाल (लैम्बस्किन) में बांध कर उसके साथ हो लेते हैं। पहली महिला, जिसने बालक को जन्म दिया होता है, सज-समरकर कर, साथ-साथ चलती है। गांव का पुजारी, जिसे लबदग्पा कहा जाता है, एक धनुष और तीर के साथ प्रार्थना करता है। जैसे ही आटा टूटता है, देवताओं को खुश करने के लिए ये फेंके जाते हैं। लोग ढोल पीटते हैं और मेमने की छाल को पेड़ या झाड़ी पर रख, उस पर तीर मारे जाते हैं। ग्रामीण तब हरेक घर जाते हैं, जहां लड़का पैदा हुआ होता है, और इस तरह नृत्य और दावत देर रात तक चलती है।

 गोथसी

फग्ली

फरवरी के प्रथम या द्वितीय सप्ताह में मनाये जाने वाला इस फग्ली उत्सव में तेल के दीपकों की चमक से सजे घरों को देखते बनता है। फर्श पर एक 2 फुट ऊंची बांस की छड़ी पर एक सफेद चादर लपेट कर 'बारजा' बनाया जाता हैं। फिर गेंदे के फूलों से इसे सजाया जाता है, माना जाता है गेंदे के आभूषणों से सजी यह 'बारजा’ एक देवदूत है। नाना प्रकार के व्यंजन इस संरक्षक देवदूत के सामने भोजन के लिए रखा जाता है, माना जाता है ये देवदूत हमारे जीवन में समृद्धि लाते हैं। सुबह-सुबह परिवार के मुखिया और उनकी पत्नी टोटू (भुनी हुई जौ और छाछ से बना आटा) और कवारी पकाते हैं।  टोटू को छत पर ले जाकर देवताओं को अर्पण करते हैं और कवारी को कौवों को खिलाया जाता है। दंपति कृतज्ञता दिखाते हुए भेड़ और गायों का भी सम्मान करते हैं। फिर वे गांव के बुजुर्गों का सम्मान करते हैं और प्रत्येक घर वे, एक स्थानीय पूरी, मारचू,(गहरे तले हुए फ्लैटब्रेड) के साथ जाते हैं। त्योहार को कुंस या कुस के नाम से भी जाना जाता है, लेकिन इसके प्रत्येक दिन का अपना नाम है। बैल, योक और हल के प्रतीक वाली हरी विलो की छड़ियों को बारजा के सामने कमरे में घुमाते हैं। दावतें होती हैं, त्यौहार मनाये जाते हैं, उपहार और गेंदे के फूलों का आदान-प्रदान प्रियजनों के साथ किया जाता है।

फग्ली

रोशनी का त्योहार

पट्टन घाटी में मनाया जाने वाला खोगला त्योहार को प्रकाश का त्योहार कहा जाता है। त्योहार की तारीख, जो आमतौर पर माघ पूर्णिमा (पूर्णिमा) में होती है, इसका फैसला पट्टन घाटी के एक लामा द्वारा किया जाता है। देवदार की शाखाओं से बने हलड़े, पट्टियों में काटकर, इन्हें बांध कर गुच्छा बनाया जाता है। फिर उन्हें गांव के हर घर में जलाया जाता है और शाम को एक सामुहिक स्थान पर लाया जाता है। विभिन्न देवताओं को सम्मानित करने के लिए, इस अनुष्ठान को पांच बार दोहराया जाता है।

 रोशनी का त्योहार

शेषु फेयर

ये मेले जून महीने में शशूर, जेमूर, क्यी, कारदांग, ताबो और माने मठों में मनाए जाते हैं। इसकी विशिष्टता है लामाओं द्वारा एक प्रमुख असुर नृत्य है, जिसमें यहां के लोग रंगीन पोषाक और पक्षी या जानवरों के मुखौटे भी पहनते हैं।

 शेषु फेयर

कीलोंग का ट्राइबल फेयर

14 से 16 अगस्त के बीच घाटी के निवासियों के साथ-साथ पर्यटक इस विशेष मेले के लिए इकट्ठा होते हैं। इसमें चंडीगढ़, धर्मशाला, लेह, चंबा, कुल्लू और स्पीति के कलाकारों और सांस्कृतिक मंडलों के साथ-साथ स्थानीय कलाकार भी भाग लेते हैं।

कीलोंग का ट्राइबल फेयर

पौड़ी मेला

अगस्त के तीसरे सप्ताह में भक्तजन इस धार्मिक और उत्सव से भरे मेले देखने के लिए घाटी में आते हैं। पूजा की शुरुआत वे त्रिलोकनाथ (शिव, तीनों लोकों के स्वामी) या बौद्धों द्वारा माने जाने वाले अविलोकितेश्वर से करते हैं। इसके बाद "ओम मणि पद्मे हम" मंत्र का तीन या सात बार उच्चारण करते हुए प्रार्थना चक्रों को घुमाते हुए मंदिर की परिक्रमा की जाती है। यह हर सुबह और शाम को किया जाता है। पूजा के समय घी और सरसों के तेल के दीपक लगातार जलाए जाते हैं। भक्त इन दीपकों को जलाये रखने के लिए धन, घी या तेल का दान करते हैं। इन सभी अनुष्ठानों के बाद, एक मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमे कई स्टॉल और चाय की दुकानें लगाई जाती है। इसके अलावा, नृत्य प्रदर्शन की व्यवस्था की जाती है, लोक धुन बजाये जाते हैं। दूसरी सुबह, त्रिलोकनाथ के ठाकुर, एक सजे हुए घोड़े पर बैठ, सात झरनों तक एक जुलूस का नेतृत्व करते हैं। मान्यता है, इन्हीं सात झरनों से सात देवता प्रकट हुए थे। एक बार जब जुलूस लौटता है, तो कुछ श्रद्धालु घर जाते हैं एवं कुछ मेले में तीसरे दिन तक रुकते हैं।

पौड़ी मेला

लदरचा मेला

काजा में हर साल जुलाई-अगस्त में आयोजित होने वाले इस पारंपरिक व्यापार मेले में सामानों का सौदा (बार्टर) और बिक्री की जाती है। कुल्लू, किन्नौर और लाहौल के व्यापारी और आगंतुक एक साथ यहां सम्मिलित होते हैं, संस्कृतियों का जीवंत संगम यहां देखा जा सकता हैं। पहले, मेला स्पीति घाटी के किब्बर मैदान में आयोजित किया जाता था। उस समय लद्दाख, रामपुर, बुशेर और स्पीति के व्यापारी अपने माल के साथ यहां आते थे।

 लदरचा मेला