विश्वनाथ मंदिर

यह मंदिर वाराणसी के लोकप्रिय आकर्षणों में से एक है। विश्वनाथ मंदिर जो काशी विश्वनाथ मंदिर भी कहलाता है, भगवान शिव को समर्पित है। भगवान शिव इस  शहर के इष्ट देव हैं। सोने की परत चढ़ी होने के कारण, इसे सुनहरा मंदिर भी कहते हैं। हिंदू श्रद्धालुओं में इसका विशेष स्थान है। वर्तमान में जो इसका स्वरूप है, यह 1780 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा प्रदान किया गया था। 15.5 मीटर ऊंचा सोने का स्तंभ एवं सोने का गुंबद पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने 1839 में उपहार स्वरूप दिया था। यह मंदिर अन्य मंदिरों तथा तंग गलियों की भूलभुलैया के बीच स्थित है। यहां पहुंचने के लिए उन रास्तों से होकर गुज़रना पड़ता है जहां मिठाइयों, पान, हस्तशिल्प एवं सजावटी सामान की दुकानें हैं। दर्शन का समय सवेरे 4 बजे से रात 11 बजे तक है। किंतु विशेष अनुष्ठानों के लिए मंदिर के पट बीच-बीच में बंद कर दिए जाते हैं। टिकट ख़रीदकर इन अनुष्ठानों को देखा जा सकता है। विश्वनाथ मंदिर से सटे मंदिरों में अन्नपूर्णा मंदिर, दुंडीराज विनायक एवं ज्ञानवापी हैं, जो इसी के समान श्रद्धेय हैं। यह मंदिर गंगा नदी के किनारे पर स्थित है तथा यहां पर जो ज्योतिर्लिंग स्थित है, ऐसा माना जाता है कि यह 12वां ज्योतिर्लिंग है। मंदिर परिसर में एक कुआं भी है, जो ज्ञान वापी कहलाता है। कइयों का मानना है कि सुरक्षा की दृष्टि से ज्योतिर्लिंग को कुएं में रखा गया था तथा घुसपैठियों से इसे बचाने के लिए मंदिर का मुख्य पुजारी इसे लेकर कुएं में कूद गया था। हिंदू पौराणिक कथाओं में इस मंदिर का अत्यधिक महत्त्व है। ऐसा माना जाता है कि यहां रखे ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने तथा गंगा के पवित्र जल में स्नान करने इस क्षेत्र के अनेक महान संत आ चुके हैं। 

विश्वनाथ मंदिर

काल भैरव मंदिर

नाम से ही परिलक्षित होता है कि यह मंदिर भगवान काल भैरव को समर्पित है, जो भगवान शिव का उग्र रूप हैं। इस मंदिर की प्रमुख प्रतिमा के रूप में एक व्यक्ति चेहरे के स्थान पर खोपड़ी लगाए फूलों की मालाएं पहने हुए विद्यमान है। ऐसी लोकप्रिय मान्यता है कि काल भैरव ही तय करते हैं कि वाराणसी में कौन रहेगा। संभवतः इसलिए जो लोग पहली बार इस शहर में आते हैं, वे सबसे पहले इस मंदिर में जाते हैं तथा जो लोग शहर से जाने लगते हैं, वे यहां पर रुककर भगवान की अनुमति मांगते हैं। इस मंदिर का प्रवेश मार्ग बहुत संकरा है। कोई भी यहां से इष्टदेव की प्रतिमा देख सकता है। श्रद्धालुगण भगवान की प्रतिमा पर का तिल का तेल एवं पुष्प अर्पित करते हैं। मंदिर के भीतरी भाग में एक प्रवेशद्वार पीछे से भी है, जहां से केवल पुजारी ही आते-जाते हैं। मंदिर परिसर के बाहर अनेक दुकानें स्थित हैं, जहां से श्रद्धालुगण भगवान को चढ़ाए जाने वाली सामग्री ख़रीद सकते हैं।   

काल भैरव मंदिर

दुर्गा मंदिर

लाल पत्थरों से बना यह मंदिर दुर्गा मां को समर्पित है जो दुर्गा कुंड मंदिर भी कहलाता है। शहर के दक्षिण में स्थित इस मंदिर का निर्माण किसी गुमनाम बंगाली रानी ने 18वीं सदी में करवाया था। यह मंदिर बहु-स्तरीय शिखरों के साथ उत्तर भारतीय वास्तुशिल्प में बनाया गया है। यहां पर अत्यधिक बंदर होने के कारण यह बंदरों का मंदिर भी कहलाता है। इस मंदिर परिसर में एक कुंड भी है। इसके चारों ओर पंक्तिबद्ध सीढ़ियां तथा हर एक कोने पर खंभे बने हुए हैं। हिंदू श्रद्धालुओं के लिए यह मंदिर महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है, विशेषकर नवरात्रि में तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है जब मां दुर्गा को पूजा जाता है। श्रद्धालुओं  में यह मान्यता है कि इस मंदिर में दुर्गा मां की प्रतिमा स्वयं ही प्रकट हुई थी। मंदिर के भवन पर किया गया लाल रंग मां दुर्गा को ही समर्पित है, यह रंग देवी का ही प्रतीक है। कइयों का मानना है कि देवी मां श्रद्धालुओं को परेशानियों से उबारती हैं। 


वाराणसी में एक अन्य दुर्गा मंदिर है, जिसका नाम ब्रह्मचारिणी दुर्गा मंदिर है। यह मंदिर गंगा नदी के किनारे दुर्गा घाट (अर्थात् दुर्गा कुंड) के निकट स्थित है।

तुलसी मानस मंदिर

छठी सदी के भारतीय भक्तिरस के कवि गोस्वामी तुलसीदास जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की थी, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए 1964 में तुलसी मानस मंदिर का निर्माण किया गया। सफे़द संगमरमर से निर्मित यह मंदिर देखने में बहुत सुंदर है। इसकी दीवारों पर रामचरितमानस से लिए गए छंद तथा दृश्य उकेरे गए हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निकट बने इस मंदिर का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्व है क्योंकि तुलसीदास ने बेहद लोकप्रिय भारतीय ग्रंथ रामायण की रचना अवधि में की थी जो हिंदी भाषा की बोली है, जिससे यह जनसाधारण के लिए सुगम साबित हुई। यह मंदिर प्रसिद्ध दुर्गा मंदिर के निकट स्थित है, जो भगवान राम को समर्पित है। इस मंदिर में भगवान राम, देवी सीता, भगवान लक्ष्मण एवं भगवान हनुमान की सुंदर प्रतिमाएं विद्यमान हैं। इसमें एक सुंदर बाग भी है।    

तुलसी मानस मंदिर

संकट मोचन मंदिर

भगवान हनुमान को समर्पित यह मंदिर वाराणसी के प्राचीन मंदिरों में से एक है। संकट मोचन मंदिर अस्सी घाट व बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निकट स्थित है। संत तुलसीदास द्वारा स्थापित यह मंदिर श्रद्धालुओं में बहुत लोकप्रिय है। ‘संकट मोचन’ का अर्थ होता है जो कष्टों को हरने में मदद करे। कई श्रद्धालुओं का मानना है कि इस मंदिर में इष्टदेव के दर्शन करने से उनकी परेशानियों का निवारण होगा। मंगलवार एवं शनिवार पावन दिन माने जाते हैं, इसलिए इन दोनों दिन श्रद्धालुओं की अत्यधिक भीड़ देखने को मिलती है जो हनुमान की वंदना करने यहां आते हैं। ये लोग भगवान हनुमान की मूर्ति पर लड्डुओं के साथ सिंदूर चढ़ाते हैं। तत्पश्चात् यह सिंदुर श्रद्धालुओं के माथे पर लगाया जाता है। यहां पर शास्त्रीय संगीत के अनेक कार्यक्रम होते हैं जिनमें एक सप्ताह तक चलने वाला संकट मोचन संगीत समारोह भी है। यह वार्षिक समारोह अप्रैल में आयोजित किया जाता है।   

संकट मोचन मंदिर

पार्श्वनाथ जैन मंदिर

यह मंदिर जैनियों के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को समर्पित है, जो शहर के मध्य क्षेत्र से दूर भेलूपुर में स्थित है। यह मंदिर अपने नाम के अनुरूप तीर्थंकर की जन्मस्थली का स्मरण कराता है। मंदिर में किया गया जाली का कार्य बहुत उत्कृष्ट व जटिल है। इसकी दीवारों पर भी नक्काशी इसका महत्व बढ़ाती है। इस मंदिर का प्रबंधन जैन धर्म के दिगाम्बर सम्प्रदाय द्वारा किया जाता है। पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होने के साथ-साथ जैन समुदाय के लोगों के लिए यह तीर्थस्थल भी है। ऐसी मान्यता है कि यह भगवान आदिनाथ के समय में बनाया गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि काशी के राजा की पुत्री सुलोचना का स्वयंवर यहीं पर आयोजित किया गया था। इस तीर्थ का उल्लेख विविध तीर्थ कल्प में भी मिलता है, जिसकी रचना आचार्य जी प्रभा सूरि स्वराजी ने 14वीं सदी में की थी। मंदिर में किया गया जाली का काम बहुत महीन एवं उत्कृष्ट है। मंदिर की दीवारों पर की गई नक्काशी इसके महत्व को और भी बढ़ा देती है।     

भारत माता मंदिर

वाराणसी में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के बराबर में ही ज्ञान का एक और केंद्र महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ स्थित है। इस शिक्षण संस्थान के परिसर में ही भारत माता मंदिर स्थित है। यह एक अनोखा मंदिर है जिसमें किसी देवी या देवता की नहीं अपितु भारत माता की आराधना की जाती है। इसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने 1936 में किया था। इस मंदिर में भारत माता की संगमरमर की प्रतिमा स्थित है जिसे भारत के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया था। यहां संगमरमर पर अविभाजित भारत का भौगोलिक मानचित्र भी अंकित है जिसमें मैदान, पर्वत एवं सागर दिखाए गए हैं। इसका निर्माण बाबू शिव प्रसाद गुप्त द्वारा कराया गया था तथा आठ मंज़िला इस मंदिर की ऊंचाई 180 फुट है।    

भारत माता मंदिर