पुरातत्व संग्रहालय

बिहार के सबसे अधिक देखे जाने वाले स्थानों में से एक, नालंदा के पुरातत्व संग्रहालय में हजारों पुरावशेष संरक्षित हैं। यह संग्रहालय सन् 1917 में स्थापित किया गया था और यह राजगीर का प्राचीनतम मठ-विश्वविद्यालय परिसर के रूप में प्रसिद्ध है। संग्रहालय का मुख्य आकर्षण भगवान बुद्ध की अच्छी तरह से संरक्षित मूर्तियां हैं, साथ ही बौद्ध और हिंदू कांस्य वस्तुओं का एक सुंदर संग्रह भी है। संग्रहालय में दो विशाल टेराकोटा के मटके भी हैं जो पहली शताब्दी के बने हैं। पर्यटक तांबे की प्लेटों, पत्थर के शिलालेखों, सिक्कों, मिट्टी के बर्तनों और अन्य पुरातन वस्तुओं की प्रदर्शनी भी देख सकते हैं। संग्रहालय में चार दीर्घाएं हैं जो लगभग 349 प्राचीन वस्तुओं को प्रदर्शित करती हैं जो 5वीं -12वीं शताब्दी की बनी मानी जाती हैं। पहली गैलरी 57 मूर्तियां और चित्रकलाएं दिखाती है, जबकि दूसरी गैलरी प्लास्टर, टेराकोटा उत्पादों और लोहे के औजार जैसी विविध वस्तुओं को प्रदर्शित करती है। तीसरी गैलरी पूरी तरह से कांस्य वस्तुओं की है और अंतिम गैलरी पत्थर की छवियों और मूर्तियों को प्रदर्शित करती है। संग्रहालय कला और इतिहास के प्रेमियों के लिए एक अवश्य-दर्शनीय जगह है।

पुरातत्व संग्रहालय

नव नालंदा महाविहार

नव नालंदा महाविहार पाली साहित्य और बौद्ध धर्म के अध्ययन और अनुसंधान के लिए समर्पित, अपेक्षाकृत एक नया संस्थान है। यह विदेश के छात्रों को भी आकर्षित करता है। इस संस्थान की स्थापना प्राचीन नालंदा महाविहार की तर्ज पर पाली और बौद्ध धर्म में उच्च अध्ययन के केंद्र के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से की गई थी। संस्थान प्रारम्भ से ही एक आवासीय संस्थान के रूप में कार्य कर रहा है। भारतीय और विदेशी छात्रों को सीमित संख्या में दाखिला प्रदान किया जाता है। नव नालंदा महाविहार को भारत के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा "डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी" का दर्जा दिया गया है। महाविहार का वर्तमान परिसर ऐतिहासिक इंद्रपुष्कर्णी झील के दक्षिणी तट पर स्थित है, जबकि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष झील के उत्तरी तट के करीब स्थित है।

नव नालंदा महाविहार

नेपुरा गांव

तीन वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला, नेपुरा गांव बिहार में क्षेत्रफल के हिसाब से 16 वां सबसे बड़ा गांव है। नालंदा और राजगीर के बीच स्थित यह छोटा सा गांव अपने बुनाई के काम के लिए प्रसिद्ध है। गांव लगभग 250 परिवारों का घर है, जिनमें से 50 घर बुनाई के काम में लगे हुए हैं। माना जाता है कि यह गांव वह स्थल है जहां नालंदा विश्वविद्यालय के आम के तीन बगीचों में से एक मौजूद था। यह भी माना जाता है कि भगवान महावीर और गौतम बुद्ध नेपुरा गांव में रुके थे। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश इसी गांव में दिया था। यही कारण है कि यह गांव बुद्ध के उपदेशों का एक केंद्र के रूप में भी लोकप्रिय है। यह गांव न केवल नालंदा बल्कि बिहार के अन्य भागों में भी हथकरघा कार्यों के लिए प्रसिद्ध है।

नेपुरा गांव

कुंडलपुर

नालंदा के बाहरी इलाके में स्थित, कुंडलपुर जैन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों में से एक है। इसे जैन धर्म के संस्थापक और अंतिम तीर्थंकर (संत) भगवान महावीर की जन्मस्थली माना जाता है। जगह को चिह्नित करने के लिए, एक साढ़े चार फुट ऊंची भगवान महावीर की मूर्ति को यहां के एक मंदिर में रखा गया है। उसी परिसर में त्रिकाल चौबीसी जैन मंदिर है जिसमें तीर्थंकरों की 72 मूर्तियां हैं। इनमें से प्रत्येक 24 संतों को, अतीत, वर्तमान और भविष्य के संतों का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर परिसर के पास दो झीलें हैं जिन्हें दीर्गा पुष्करणी और पांडव पुष्करणी के नाम से जाना जाता है। कुंडलपुर सात मंजिले नंद्यावर्त महल के लिए भी जाना जाता है, जिसे भगवान महावीर की जन्मस्थली कहा जाता है। कभी यह एक अद्भुत संरचना रही होगी, पर आज यह मात्र एक खंडहर है। देखने में यह काफी रोमांचक है क्योंकि यह अभी भी अपने पूर्व गौरव की भव्यता को बनाये हुए है।

कुंडलपुर

ह्वेन त्सांग मेमोरियल हॉल

नालंदा में सबसे आकर्षक पर्यटन स्थल, ह्वेन त्सांग मेमोरियल हॉल है जिसे ह्वेन त्सांग की याद में बनाया गया था। वह एक लोकप्रिय चीनी यात्री था, जो 633 ईस्वी में नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म और रहस्यवाद का अध्ययन करने के लिए आया था और वह 12 वर्षों तक यहां रहा था। त्सांग ने देश भर की यात्रा की और बौद्ध धर्म पर और गहन अध्ययन के लिए तक्षशिला का भी दौरा किया। जिस स्थान पर वे अपने शिक्षक आचार्य शील भद्र से योग सीखते थे, उसे अब स्मारक हॉल के रूप में जाना जाता है। हॉल का निर्माण जनवरी सन् 1957 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू किया गया था और जो सन् 1984 में जाकर पूरा हुआ। अपने प्रवास के दौरान, त्सांग ने कई दस्तावेज एकत्र किए जो बौद्ध लेखन के इतिहास का एक प्रमुख स्रोत है। ये सभी मेमोरियल हॉल में अच्छी तरह से संरक्षित हैं।

ह्वेन त्सांग मेमोरियल हॉल

नालंदा खंडहर

यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल, नालंदा के संरक्षित अवशेष बौद्ध पर्यटन सर्किट का एक महत्वपूर्ण गंतव्य है। नालंदा के भग्नावशेष आपके अन्वेषण यात्रा को और रोमांचक बनाती हैं। जैसे ही आप नालंदा विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश करते हैं, अच्छी तरह से रखे गए बड़े बड़े बगीचों से आप मंत्रमुग्ध हो जायेंगे। दुनिया के पहले आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक के रूप में जाने वाले जगह पर, मात्र ईंटों के ढेर के रूप में बचे इसके अवशेषों के बीच वक्त गुजारना, एक दिलचस्प अनुभव देता है। 450 ईस्वी में गुप्त सम्राटों द्वारा निर्मित, विश्वविद्यालय परिसर में 10,000 छात्र और 2000 शिक्षक रहा करते थे। विश्वविद्यालय परिसर में बहुत सारे अहाते, छात्रावास, ध्यान कक्ष, मंदिर और एक पुस्तकालय हुआ करता था। छात्रावासों में अभी भी पत्थर के बिस्तर, स्टडी टेबल और प्राचीन स्याही के बर्तनों के अवशेष हैं। शयनगृह के तहखाने में रसोई घर था। पुरातात्विक निष्कर्षों से पता चला है कि यह स्थान रसोईघर रहा होगा, क्योंकि यहां जले हुए चावल पाए गये थे। चावल के अनाजों को खुदाई के दौरान खोजी गई अन्य वस्तुओं के साथ नालंदा संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। जब आप आगे बढ़ेंगे, घुमावदार सीढ़ियां आपको एक लंबे गलियारे तक ले जाएंगी जिसके दोनों ओर कमरें बने हुए हैं। ये छात्रों की पाठ शालायें रही होंगी। यह विश्वविद्यालय के खंडहर का एकमात्र हिस्सा हैं, जिसमें उसकी छत अभी भी बरकरार है। लाल ईंट के खंडहरों में कुछ समय बिताएं, इनमें 11 मठें और छह मंदिरों को भी आप देख सकेंगे जो इस एक चौड़े गलियारे के दोनों ओर स्थित है। नालंदा में मठों को कुषाण शैली की वास्तुकला में बनाया गया है और अधिकांश संरचनाएं बताती हैं कि नए भवनों को पुराने खंडहरों के ऊपर खड़ा किया गया था। यह दर्शाता है कि विश्वविद्यालय अनेकों बार निर्माण की प्रक्रिया से गुजरा था। इन सभी भग्नावशेषों में सबसे प्रमुख है महान स्तूप, जिसे नालंदा स्तूप या सारिपुत्र स्तूप के नाम से भी जाना जाता है। बुद्ध के अनुयायी सारिपुत्र के सम्मान में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी में निर्मित, इस स्तूपे के शीर्ष को पिरामिड का आकार दिया गया है। स्तूप के चारों ओर की सीढ़ियों से इसके शीर्ष तक पहुंचा जा सकता है। यह संरचना सुंदर मूर्तियों और व्रतानुष्ठित स्तूपों से भरी हैं। ये विशाल स्तूप ईंटों से निर्मित की गई हैं और पवित्र बौद्ध ग्रंथों के विषय वाक्य इन पर अंकित हैं। ऐसा माना जाता है कि इन स्तूपों का निर्माण भगवान बुद्ध के शरीर की राख के ऊपर किया गया था। पुरातत्वीय साक्ष्यों से पता चलता है कि स्तूप मूलतः एक छोटी सी संरचना थी और बाद में इसका विस्तार अतिरिक्त निर्माण के साथ किया गया।

नालंदा खंडहर

नालंदा स्तूप

सारिपुत्र स्तूप के रूप में भी जाना जाने वाला नालंदा स्तूप, नालंदा में बचे स्मारकों में सबसे प्रतिष्ठित है। एक यूनेस्को विश्व विरासत स्थल, नालंदा में यह सबसे महत्वपूर्ण स्मारक है और इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक वसीयतनामा है। बुद्ध के अनुयायी सारिपुत्र के सम्मान में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा यह तीसरी शताब्दी में निर्मित किया गया था। महान नालंदा स्तूप को शीर्ष पर पिरामिड की तरह आकार दिया गया है। स्तूप के चारों ओर बनी सीढ़ियों से इसके शीर्ष तक पहुंचा जा सकता हैं। यह संरचना सुंदर मूर्तियां और व्रतानुष्ठित (मन्नत) स्तूपों से भरा है। यह विशाल स्तूप ईंटों से बनी हैं और पवित्र बौद्ध ग्रंथों के वाक्य इस पर उत्कीर्ण किए गए हैं। ऐसा माना जाता है कि इन स्तूपों का निर्माण भगवान बुद्ध की राख के ऊपर किया गया था। सभी मन्नत स्तूपों में से सबसे अधिक आकर्षित करने वाला पांचवां स्तूप है, जिसे इसकी कोने की मीनारों के साथ अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है। ये मीनारें गुप्त-युगीन कला के उत्कृष्ट फलकों से सजी हैं जिनमें भगवान बुद्ध की मूर्तियां तथा जातक कथाओं के दृश्य शामिल हैं। स्तूप के शीर्ष भाग में एक पूजा कक्ष है जिसमें पीठ-स्थान है, जिसका प्रयोग मूलतः भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति रखने के लिए किया गया होगा। ऐसा कहा जाता है कि म्यांमार का ग्वे बिन तेत कोन स्तूप, नालंदा के स्तूप से प्रभावित है।

नालंदा स्तूप