टेराकोटा

टेराकोटा वस्तुएं बनाना कोलकाता के कारीगरों का परंपरागत कौशल है। यह शहर टेराकोटा से बनी कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध है और जिसमें मंदिरों की छोटी प्रतिकृतियों और अन्य अनेक वस्तुओं शामिल हैं। इस कार्य में कलम से लेकर ट्रे और फूलों के बर्तनों और टाइलों तक सभी प्रकार के टेराकोटा की वस्तुएं बनाई जाती हैं। यहां मिलने वाले गुलदानों और लालटेनों पर सबसे दुर्लभ रंग संयोजन देखे जा सकते हैं। कहा जाता है कि यह शिल्प पंचमुरा क्षेत्र से उत्पन्न हुआए जहां शिल्पकार शानदार टेराकोटा उत्पाद बनाते हैं। इनमें मछली पकड़ने और फूल चुनने जैसे दैनिक कार्यों के चित्रण से लेकर पार्कए चाय बागानए पहाड़ या नदियों जैसे सुंदर भाव अंकित किए गए हैं। यहां चरक जैसे स्थानीय त्यौहारों के दृश्य भी देखे जा सकते हैं जो बैसाख के पहले दिन मनाया जाता है। पर्यटक क्रोकरीए लैंपए टबए टाइल इत्यादि उत्पाद भी खरीद सकते हैं।स्वादिष्ट व्यंजनों की सूची

टेराकोटा

शोला पिट

शोला पिट जिसे भारतीय कॉर्क भी कहा जाता हैए एक खूबसूरत दूधियाण्सफेद स्पंज लकड़ी है। इस पर कलाकृतियों को बनाने के लिए प्रतिभाशाली कलाकारों द्वारा बारीक नक्काशी की जाती है। बंगाली दूल्हे द्वारा पहनी जाने वाली पारंपरिक टोपी इन कृतियों में सबसे महत्वपूर्ण है। दुर्गा पूजा के उत्सव से कुछ महीने पहले इस शिल्प का उपयोग होना आरंभ हो जाता है। इसका प्रयोग करके पंडालों के बैकग्राउंड को बनाया जाता है। शोला शिल्प बनाने की प्रक्रिया जटिलए विस्तृत और अत्यंत थकाऊ होती हैए और मालाकार जातियों के कारीगरों इसे बनाते हैं। मालाकार का अर्थ है माला बनाने वाले। इस शिल्प का अभ्यास मुख्य रूप से नादियाए हुगलीए बर्दवानए मुर्शिदाबाद और बीरभूम जैसे क्षेत्रों में किया जाता है।शोला पिट को सोला पौधों से प्राप्त किया जाता है जो पश्चिम बंगालए असम और पूर्वी दलदली गंगा के मैदानी इलाकों में उगते हैं।

शोला पिट

मास्क

कागज़ से बने पेस्ट का उपयोग करके बनाये गये ये पारंपरिक मुखौटे पौराणिक कहानियों से देवताओं और राक्षसों का एक चित्रण हैं। इन्हें बनाने के लिए कागज को मिट्टी में डुबोया जाता है और फिर मिट्टी के मॉडल पर चिपका दिया जाता है। एक बार सूख जाने पर मुखौटे को मोल्ड से निकाल लिया जाता है और फिर चमकीले रंगों से रंगा जाता है। पुरुलिया जिले को इस कला के केंद्र के रूप में जाना जाता है। मास्क का उपयोग घरों को सजाने के लिए या लोक उत्सवों में भाग लेने के लिए एक साधन के रूप में किया जा सकता है।

मास्क

कांथा

कांथा भारत में कढ़ाई के सबसे पुराने रूपों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति पूर्वण्वैदिक काल में हुई थी। इसमें कलात्मक रुप से सूती या रेशमी कपड़े पर फूलए पक्षीए जानवर और ज्यामितीय आकृतियां बनाने के लिए टांके लगाए जाते हैंए जिसका उपयोग साड़ी और धोती बनाने के लिए किया जाता है। आजकल पांच या छह कपड़े की परतों को एक साथ सिल कर कंबल और रजाई भी बनाए जा रहे हैं।पहले के समय में बनाई जाने वाली कलाकृतियों में सूर्यए जीवन के वृक्ष और ब्रह्मांड जैसे प्रतीक शामिल थे। बाद में जब कला पर हिंदू धर्म का प्रभाव पड़ाए तो इसमें देवताओं और समारोहों के चित्र भी शामिल हो गये। इसमें देवीण्देवताओंए जन्म और पूजा के समारोहों के डिजाइन प्रचुर मात्रा से देखे जा सकते हैं।संस्कृत में कांथा शब्द का अर्थ है श्चिथड़ेश्ए और इस प्रकार की कढ़ाई की शुरुआत का मुख्य उद्देश्य पुरानी सामग्री का पुनः उपयोग करना था। इस कढ़ाई के विकास का श्रेय बंगाल की ग्रामीण गृहिणियों को दिया जा सकता हैए जिन्होंने अपने परिवारों के लिए रजाईयांए साड़ियांए धोती और रूमाल बनाए। हालांकिए इसकी मान्यता समय के साथ हल्की पड़ती चली गई थीए लेकिन 1940 के दशक में ललित कला क्षेत्र के प्रसिद्ध संस्थान श्कला भवन इंस्टीच्यूट ऑफ फाइन आर्ट्सश् ने इसे पुनर्जीवित किया।आजए कांथा साड़ियां पूरे राज्य में प्रतिष्ठित हैं और इन्हें बनाना बहुत बारीक काम है और जिसमें ज्यादा श्रम बल की आवश्यकता होती है। ये साड़ियां बंगाल की निशानी है और अगर आप यहां से गुजर रहे हैं तो इन साड़ियों को अवश्य ही खरीदें।

कांथा

कालीघाट की पटुआ चित्रकला

कालीघाट चित्रकला या कालीघाट पट एक कला रूप हैए जो 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में कोलकाता के प्रसिद्ध कालीघाट के काली मंदिर के आसपास विकसित हुआ। इस चित्रकला का अभ्यास पटुआ नामक कलाकार किया करते थे। उन्होंने इन चित्रों में देवीण्देवताओं की लीलाओं से लेकर कलकत्ते के बाबुओं पर होने वाले व्यंग्य को बंगाली जीवन शैली में चित्रित किया है। इस कला के मुख्य विषय थेय झाड़ू से अपना बचाव करती गृहणियांए वीणा यएक वाद्य यंत्रद्ध और तबला बजाती स्त्रियां और कुछ को तो उनमें वस्त्र पहनते हुए दिखाया गया है। इनके प्रमुख दृश्य धार्मिक और पौराणिक कहानियों के हैं। आप इनमें रानी लक्ष्मीबाई जैसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के साथण्साथ पशुण्पक्षियों के चित्र भी देख सकते हैं। अंततः कालीघाट पट से प्रेरित प्राकृतिक रंग से रंगी लकड़ी का काम और 

कालीघाट की पटुआ चित्रकला

डोकरा धातु ढलाई

डोकरा आर्ट धातु की कलाकृतियों के निर्माण की एक पद्धति है और ऐसा माना जाता है कि यह लगभग 5ए000 वर्ष पुरानी है। डोकरा कमार जाति के आदिवासी सदियों से इस कला का प्रयोग करते आ रहे हैंए और आज भी इसकी लोकप्रियता बनी हुई है। डोकरा कला में तांबे और कांस्य से बनी मिश्रधातुओं से निर्मितए धातु की विलक्षण मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। यह प्रक्रिया इतनी कठिनए उबाऊ और जटिल है कि कई बार एक कलाकृति बनाने में एक महीने का समय भी लग जाता है।इस प्रक्रिया का पहला चरण मिट्टी के उपयोग से भीतरी भाग का निर्माण करना है जो शिल्पकृति के अंतिम रूप से आकार में थोड़ा ही छोटा होता है। इसे धूप में सुखाया जाता है और शिल्पकृति के ऊपर जरुरत के अनुसार मोटाई में मोम की परत चढ़ाई जाती है। इस पर फिर से मिट्टी की परत चढ़ाई जाती है और इसके बाद इस पर डिजाइन उकेरे जाते हैं और बाद में मिट्टी की और अधिक परतें चढ़ाई जाती हैं और तब तक सुखाया जाता है जब तक सांचा कठोर न हो जाए। इसके बाद मोम को पिघलाने के लिए सांचे गर्म किया जाता है। एक बार जब मोम पूरी तरह गर्म हो जाए तो पिघली हुई धातु को गार में डाल करए मिट्टी के सांचे के आकार में ढलने के लिए छोड़ दिया जाता है। जब धातु ठंडी हो जाती है तो यह सूख जाती है और सांचा को दो या तीन बराबर टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। इसके बाद असल शिल्पकृति निकल कर सामने आती है। अतरू सांचा टूटने के बाद कोई भी दो डोकरा टुकड़े एक जैसे नहीं दिखते।अंतिम चरण में धातु को सील किया जाता है। इसके बाद पेटिना को संरक्षित करने के लिए उस पर मोम की अंतिम परत लगाई जाती है।

डोकरा धातु ढलाई

शंख शिल्प

कोलकाता के निवासियों के लिए शंख एक विशेष महत्व रखता है। इसका उपयोग धार्मिक समारोहों से लेकर घर के सजावट के सामान बनाने तक कई प्रकार से किया जाता है। घर की आंतरिक सजावट की वस्तुएं बनाने के लिए इन समुद्री कौड़ियों पर सुंदर नक्काशी की जाती है। इसके अलावा शादियों में बंगाली महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली चूड़ियां भी शंख से तैयार की जाती हैं।शंख से अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने का शिल्प बंगाल में बहुत अधिक प्रसिद्ध है। चूंकि ये शंख बहुत ही शुभ माने जाते हैंए इसलिए इन पर देवीण्देवताओं की कई तरह की उत्कृष्ट तस्वीरें उकेरी जाती हैं। पर्यटक यहां पर गहनेंए सीप से आभूषणए चम्मचए कांटे और टेबल लैंप जैसी चीजें खरीद सकते हैं। शंख और सीप की वस्तुएं खरीदने के लिए कुछ लोकप्रिय स्थानों में बिष्णुपुरए मुर्शिदाबादए मालदा और नादिया प्रमुख हैं।

शंख शिल्प

पीतल और कांसे के बर्तन

कोलकाता में बर्तनए सजावट के सामान और घरेलू जरुरत की वस्तुएं बनाने के लिए पीतल और कांसे का व्यापक उपयोग होता है। यह दुर्लभ कला पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैए आज भी इन पीतल और कांसे से बने वस्तुओं की लोग खरीददारी करते हैं। यहां आज भी आप पाईध्पैली खरीद सकते हैंए यह पीतल का काम किया हुआ लकड़ी का एक बर्तन होता हैए जिससे अनाज मापने का काम होता है। सामान्यतः यह आठ के सेट में आता है और घरेलू सजावट के उद्देश्यों के अतिरिक्त इसका प्रयोग धान और चावल आदि को मापने के लिए भी किया जाता है।मुर्शिदाबाद में खगड़ा के कारीगरों को उनके चमकदार और बढ़िया फिनिश वाले सुंदर उत्पादों के लिए जाना जाता है। बांकुड़ा जिले में घाटल और पुरुलिया के शिल्पकार विशाल वस्तुओं को उत्कृष्ट ढंग से गढ़ने के लिए प्रसिद्ध हैं। चन्द्रपुर के शिल्पकारों में धातु से बनी देवियों और उनकी मूर्तियों के मस्तक गढ़ने का प्रशंसनीय कौशल हैं।

पीतल और कांसे के बर्तन

बांकुरे घोड़े

पश्चिम बंगाल के सबसे प्रतिष्ठित कला रूपों में से एक हैंए बांकुरा के घोड़े। इनका उपयोग धार्मिक और सजावटी दोनों उद्देश्यों के लिए किया जाता है। वे टेराकोटा शिल्प कौशल का उत्कृष्ट नमूना हैंए इनकी पहचान सीधी खड़ी गर्दन और नुकीले कानों से होती हैं। ये घोड़े आम तौर पर छह इंच से लेकर चार फीट की ऊंचाई के होते हैं और इनके जबड़े चौड़े होते हैं। आप पश्चिम बंगाल के बिष्णुपुरए नाकाजुरीए कामारडीहा और बिबोदा इलाके से इन्हें खरीद सकते हैं।इन घोड़ों को बनाने की प्रक्रिया काफी जटिल है। बांस और पत्थर के औजारों का उपयोग शरीर के अंगों जैसे चार पैरए एक लंबी गर्दनए चेहराए कानए पूंछ आदि को बनाने एवं तराशने के लिए किया जाता है। शरीर के कुछ हिस्से अलग से बनाए जाते हैं और फिर उन्हें गीली मिट्टी का उपयोग कर मुख्य शरीर के साथ जोड़ दिया जाता है। सुंदर दिखने के लिए इनकी पूरी देह को चिकना किया जाता है। इसके बाद इसके अन्तिम रूप को धूप में सुखा करए भट्ठी में पकाया जाता हैए और फिर रंगा जाता है।बंगाल में प्राचीन काल से ही बांकुरा के घोड़ों का उपयोग पूजा एवं धार्मिक समारोहों में किया जाता रहा है। माना जाता है कि बिष्णुपुर से लगभग 16 मील दूर पंचमुरा के कुम्हारों ने सबसे पहले इन घोड़ों को बनाया था। उनका उपयोग भगवान धर्मराज के रथ में किया जाता हैए जिनकी सूर्य देवता के रूप में पूजा की जाती है। यही कारण है कि बहुत से लोग इन घोड़ों को अपने घरों में रखना पवित्र मानते हैं।

बांकुरे घोड़े

जूट का सजावटी सामान

श्गोल्डन फाइबरश् के नाम से जाना जाने वाला श्जूटश्ए पर्यावरण के अनुकूल होता है। जूट का उपयोग विभिन्न प्रकार के सजावटी उत्पादों को बनाने के लिए किया जाता है। यह गांव की स्त्रियों के लिए आजीविका का एक स्रोत भी है। जूट बनाने की प्रक्रिया के सभी चरणों जैसे खेत से कच्चे माल प्राप्त करने से लेकर उत्पाद के निर्माण तकए सबमें महिलाएं शामिल होती हैं। शहर में बेचे जाने वाले जूट के मुख्य उत्पादों में बैगए चटाईए कोस्टरए मूर्तियांए आभूषणए घर की सजावट का सामानए जूतेए गुड़ियां आदि शामिल हैं।प्राचीन काल से ही एशिया और अफ्रीका में जूट का उपयोग बुनाई के लिए किया जाता रहा है। 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी जूट की पहली व्यापारी थीय उन्होनें वर्ष 1855 में कोलकाता के पास हुगली नदी के तट पर रिशरा में जूट की पहली मिल की स्थापना की। सन् 1869 तक वे लगभग 890 करघों वाली मिलों का संचालन करने लगे। भारत में अंग्रेजों का शासन खत्म होने के बाद भारतीय व्यापारियों ने इन मिलों पर अपना अधिकार जमा लिया। आज भारत देश जूट का बहुत बड़ा व्यापारी हैए जिसमें पश्चिम बंगाल इसका सबसे बड़ा उत्पादक है।कालीघाट की पटुआ चित्रकला यकला और संस्कृतिद्ध

जूट का सजावटी सामान