जाजमऊ, पूर्वी के कुछ सबसे बड़े चमड़े के कारखानों के लिए जाना जाता है। किसी जमाने में यह सबसे प्राचीन भारतीय सभ्यताओं का गढ़ भी हुआ करता था, जिसका उल्लेख 1300-1200 ई.पू. में भी मिलता है। सन 2010 में यहां उत्तर प्रदेश, पुरातत्व विभाग ने खुदाई की थी। खुदाई के दौरान यहां से तीन हजार साल पुराने घरों के अवशेष, मिट्टी के बर्तन और अन्य बहुत सारी वस्तुएं मिट्टी में दबी हुई मिली थीं। इन अवशेषों से पता चला कि यह वस्तुएं मौर्य और पूर्व मौर्य कालीन के समय की हैं। इस बात ने पुरातत्वविदों को हैरान कर दिया कि उस काल में भी गंगा के किनारे मानव सभ्यता पनप रही थी। खुदाई के दौरान यहां मिट्टी से बनी ईंटे भी मिलीं, जो संभवतः उस समय घर बनाने में इस्तेमाल की जाती थीं। इसके अलावा कुछ जली हुई ईंटें भी खुदाई में मिलीं, जिनसे पता चलता है कि उनका इस्तेमाल शायद सड़कें बनाने, मिट्टी के बर्तन बनाने और कलाकृतियां आदि बनाने में किया जाता होगा। जिस स्थान पर यह सारी वस्तुएं प्राप्त हुई वह जाजमऊ के टीले के नाम से प्रसिद्ध है और खुदाई में मिली यह सारी वस्तुएं अब कानपुर के संग्रहालय में रखी गयी हैं। जाजमऊ के टीले पर हुई इस खुदाई से मौर्य काल, कुशन काल, गुप्त काल, संगा काल और मध्य काल में इस क्षेत्र में हुई गतिविधियों के बारे में पता चलता है। 

यहां का एक अन्य प्रमुख आकर्षण विख्यात सूफी संत मखदूम शाह अला-उल-हक का मकबरा है, जिन्होंने जीवनभर लोगों को धर्म-निरपेक्षता का संदेश दिया। सन 1351 से 1388 तक दिल्ली की गद्दी काबिज रहे सुल्तान फिरोज शाह तुगलक ने इस सूफी संत की याद में यह मकबरा सन 1358 में बनवाया था। यदि आप नये बने गंगा पुल से लखनऊ होते हुए जाजमऊ आएं तो जिन्नातों की मस्जिद देखना न भूलें। एक पहाड़ पर बनी यह शानदार इमारत बिलकुल सफेद रंग की है, जो देखने में ताज महल जैसी लगती है। 

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