दुश्मनों के हमलों से बचने के लिए जयपुर के उत्तरी दिशा के अंत में एक सुदृढ़ नाहरगढ़ दुर्ग बनाया गया था। अरावली पर्वतमाला पर स्थित इस दुर्ग का निर्माण 1734 में कराया तथा विस्तार 1868 में दिया गया था। इसमें महाराजा स्वाई माधो सिंह द्वारा बनवाया गया माध्वेंद्र भवन भी है जिसमें राजपरिवार के सदस्य गर्मियों में रहते थे। एक रोचक कथा यह है कि इस किले का नाम मारे गए युवराज नाहर सिंह के नाम पर रखा गया था, जिसकी प्रेतात्मा चाहती थी कि इस दुर्ग का नाम उसके नाम पर पड़े। यहां से शहर का सुंदर परिदृश्य दिखाई देता है। रात में उजली रोशनी में नहाया यह दुर्ग बहुत शानदार दिखता है। इस किले की वैभवशाली स्थापत्यकला अवाक कर देने वाली है, कोई भी यहां पर इंडो-यूरोपीयन शैलियों के निशान देख सकता है। ‘ताड़ीगेट’ इस किले का प्रवेश द्वार है तथा इसकी बाईं ओर जयपुर के शासकों के इष्टदेवों को समर्पित मंदिर स्थित है। इस किले के अंदर एक और मंदिर है, जो राठौर राजकुमार नाहर सिंह भोमिया को समर्पित है। यह मंदिर भी देखने लायक है। 

इस किले की एक अन्य विशेषता माध्वेंद्र भवन है, जिसका निर्माण स्वाई माधो सिंह (1750 से 1768 तक जयपुर के शासक) द्वारा कराया गया था। यह दो मंज़िला भवन है, जिसमें राजा व उसकी रानियों के लिए कक्ष बने हुए हैं। भारतीय वास्तुकला में बने इन कमरों में यूरोपीयन अलंकरण रखे हुए हैं जैसे आयताकार खिड़कियां व यूरोपीयन-शैली के शौचालय। सभी कक्ष एवं शयनकक्ष एक लंबे गलियारे के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ये कमरे सुंदर भित्तिचित्रों से सजे हुए हैं। रानियों के कक्ष इस प्रकार से बने हैं, जिससे राजा किसी भी रानी के कक्ष में जा सके और दूसरी रानियों को पता भी न चले। सभी नौ रानियों के नाम कमरों के द्वार पर अंकित थे। 

अन्य आकर्षण