इसे मां साहेबा की दरगाह या सैयदानी मां की दरगाह भी कहा जाता है। इस मकबरे को सन् 1883 ईस्वी में, नवाब अब्दुल हक़ दलेर जंग ने अपनी मां की याद में बनवाया था। यह एक सुंदर मकबरा है जिसमें बहुत ही प्यारा जाली का काम किया हुआ है। कब्र की इमारत, कुतुब शाही और मुगल शैलियों के संयोजन को दर्शाती है।

संरचना के ऊपर एक प्याज के आकार का गुंबद है और मस्जिद के आंतरिक और बाहरी दोनों दीवारों को सुंदर प्लास्टर और बढ़िया मेहराबों से सजाया गया है। चूने और मोर्टार से बनी छोटी मीनारें ऊपरी मंडप पर हैं, और उन पर संगमरमर जड़ा हुआ है।कहा जाता है कि मां साहेबा, संस्कृति और परंपरा की कड़ी अनुयायी थीं। 10 साल की उम्र से ही उन्होंने 'पर्दा' रिवाज़ का इतनी बखूबी से पालन किया कि यह उनके जीवन का एक अभिंग अंग बन गया। वह जमीन में इतना गहरा दफन होना चाहती थी कि केवल महिलाएं ही उन्हें श्रद्धांजलि दे सके। और इसके चलते मकबरे के नीचे एक भूमिगत कक्ष है, जहां केवल महिलाओं के प्रवेश की अनुमति है। यह स्मारक वर्तमान समय में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अधीन है, जो इस संरचना की मरम्मत और संरक्षण की देखभाल कर रही है।

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