अपने स्वदेशी और पर्यावरण के अनुकूल शिल्पकला के साथ साथ, हैदराबाद अपनी बहुमुखी प्रतिभा के चलते पर्यटकों का दिल जीत लेता है।

पोचमपल्ली साड़ियां

पोचमपल्ली रेशम की साड़ी आराम और भव्यता का पर्याय है, और यह अपनी चिकनी और साफ-सुथरी डिजाइनों से एकदम अलग दिखती है। पोचमपल्ली फैब्रिक एक ऐसी पारंपरिक बुनाई तकनीक हैं, जिसमें रंगे धागों को ऊपर-नीचे बुनकर पहाड़ जैसी आकृतियां बनाई जाती है। इसे पोचमपब्ल्ली इकत भी कहा जाता है, यह बुनाई सूती और रेशम, दोनों में उपलब्ध है। इकत दो प्रकार के होते हैं: एकल इकत, जहां ताना बांधा और रंगा जाता है, और फिर इसे बाने के साथ बुना जाता है। यह या तो बिना रंगे होता है या इसका एक मूल रंग होता है। डबल इकत जिसमें ताना और बाना, दोनों बंधे और रंगे होते हैं। पोचमपल्ली इकत, दोहरे इकत शैली का उपयोग करता है। कपड़ों का रंगों को प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इन साड़ियों की बुनाई प्रक्रिया के शिल्पकला को चिराला गांव से पोचमपल्ली लाया गया था।

पर्यटक पोचमपल्ली गांव में, जहां इस प्रकार के अधिकांश कपड़ों को बुना जाता है, आप यहां एक चक्कर लगाकर इन उत्तम साड़ियों के निर्माण की प्रक्रिया को देख सकते हैं। यह हैदराबाद से लगभग 45 किमी दूरी पर है।

पोचमपल्ली साड़ियां

मलखा

मलखा एक हाथ से बना हुआ सूती कपड़ा है, जो प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। इसका उपयोग साड़ी, मेज़पोश, दुपट्टे और चादर बनाने के लिए किया जाता है और इसे शहर भर के स्थानीय हस्तकला की दुकानों पर खरीदा जा सकता है।मलखा के विकास की कहानी काफी प्रेरणादायक है। औद्योगिक क्रांति से पहले, हथकरघा कपड़ा उद्योग भारतीय समाज का प्रमुख उद्योगों में से एक था। यह उद्योग काफी विकसित था और सदियों से फलता-फूलता रहा था। हालांकि, औद्योगिक क्रांति के बाद, ध्यान इस पर केन्द्रित हो गया कि मशीनों से कितना सस्ता और कितना ज्यादा कपड़ा बनाया जाए। इस प्रकार, बड़ी बड़ी करघा मशीनों उन हथकरघा कारीगरों पर हावी हो गईं जो इस पारंपरिक कला से अपनी आजीविका चलाते थे। इसके अलावा, इस नये तरीके से कपड़ा बनाने से आज पृथ्वी, वातावरण और पानी भी प्रदूषित हो रहे हैं।

इस चलते मलखा, पहले के हथकरघा की पुनः बहाली के रूप में आया। इसकी अनूठी इंजीनियरिंग प्राकृतिक रंगों के साथ, भारतीयों के हजार साल पुराने कपड़ा बनाने के कौशल को जोड़ती है।मलखा के विनिर्माण प्रक्रिया के दौरान, बड़ी इकाइयों को छोटी इकाइयों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, यानी मशीनों को दरकिनार करते हुए, कच्चे माल पर स्थानीय कौशल का उपयोग कर, कताई को एक व्यवहार्य व्यवसाय बनाया गया। इस प्रकार इस उद्योग से, किसान, कताई-बुनाई करने वाले सभी लाभान्वित हो रहे हैं।

मलखा

बिदरी का काम

बिदरी की चीजें, बीदर गांव का गौरव है, जो हैदराबाद के पास है। यह यहीं की जन्मी एक शिल्पकला की परंपरा है जो बहुत ही प्रशंसा और आदर अर्जित कर चुकी है। इसमें जस्ता और तांबे पर काम किया जाता है, जिसे शुद्ध चांदी या पतली चादर पर जड़ा जाता है। यह एक नाजुक, और उल्लेखनीय रूप से जटिल कला है। बिदरी की वस्तुएं हैदराबाद की अधिकांश कला और शिल्प की दुकानों में पाई जा सकती हैं और बीदर में नियमित पर्यटन का आयोजन स्थानीय विरासत टूर कंपनियों द्वारा किया जाता है, जहां पर्यटक कारीगरों को शिल्प का काम करते देख सकते हैं।

इस शिल्पकला का उत्पत्ति बहमानी सुल्तानों के शासनकाल के दौरान हुई थी, जिन्होंने 14 वीं और 15 वीं शताब्दी में बीदर पर शासन किया था। यह कहा जाता है कि इस शिल्प में फ़ारसी, अरबी और तुर्की डिज़ाइनों का समामेलन है। हालांकि इसे साबित करने के लिए कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं हैं, पर कई लोग यह मानते हैं कि इस शिल्प कला 12 वीं शताब्दी में प्रचारक, ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के अनुयायियों द्वारा यहां लाया गया था।

बिदरी का काम