सुंदर एवं रंग-बिरंगी फुलकारी कढ़ाई किए हुए दुपट्टों से लेकर अनेक प्रकार की नृत्य शैलियां यहां देखने को मिलती हैं। अमृतसर में उत्साह से भरपूर एवं जीवंत संस्कृति का आनंद ले सकते हैं तथा यहां की गर्मजोशी हर किसी को आकर्षित करती है।  

फुलकारी

यह पंजाब की पारंपरिक कढ़ाई फुलकारी अथवा फूलों की कढ़ाई में कपड़े पर रंगीन ज्यामितीय प्रतिमान सघन रूप से काढ़े जाते हैं। यह कढ़ाई सामान्य रूप से चादरों, दुपट्टों एवं सूट के कपड़ों पर की जाती है। इस कढ़ाई की विशेषता यह है कि इसमें कपड़े की उल्टी तरफ़ रंगीन रेशमी धागे से टांका लगाया जाता है। फुलकारी कढ़ाई में विविध प्रकार के रूपांकन उकेरे जाते हैं, जिनमें से अधिक आयोजनों पर आधारित होते हैं। यद्यपि वरी दा बाग (यह नारंगी-लाल खद्दर पर बनाया जाता है तथा पूरे कपड़े पर कढ़ाई की जाती है) खुशियों का प्रतीक होता है। वहीं चोपे (यह दो-तरफ़ा लाइन सिलाई होती है, जो दोनों ओर से समान दिखती है तथा अमूमन कपड़े के किनारों पर कढ़ाई की जाती है) सामान्यतः वधू के मामा उसे विवाह के अवसर पर देते हैं। चम्बा, घूंघट बाग एवं सूबर फुलकारी कढ़ाई की कुछ अन्य किस्में हैं। आरंभिक दौर में यह कढ़ाई महिलाओं द्वारा की जाती थी तथा फुलकारी कढ़ाई की हुई सलवार-कमीज़ को तैयार करने में 80 दिन लगते थे। माना जाता है कि फुलकारी कढ़ाई की तकनीक को भारतीय उपमहाद्वीप लाने का श्रेय मध्य एशिया के जाट समुदाय को जाता है।

फुलकारी

ठठेरा

हाथ से बने पीतल एवं तांबे के बर्तन अमृतसर में प्राचीनकाल से बन रहे हैं। आज भी घरों तथा रेस्तराओं में उनका उपयोग खाना बनाने के लिए किया जाता है। जिस समुदाय के लोग इन अनूठे बर्तनों को बनाते हैं, उन्हें ठठेरा कहते हैं। यह एकमात्र भारतीय शिल्प है, जिसे यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची का हिस्सा है। इन बर्तनों को बनाने के लिए कारीगर पहले धातु के ठंडे टुकड़ों की पतली, चपटी थालियां बनाते हैं तत्पश्चात् हथौड़े से पीटकर उसे घुमावदार आकार दिया जाता है। इसी प्रकार से छोटे कटोरे, बड़े बर्तन एवं घेरवाली थालियां बनाई जाती हैं। इन बर्तनों को इमली का रस एवं मिट्टी से पॉलिश करके उन्हें हाथों से तैयार किया जाता है। अंतिम चरण में, गर्म धातु पर हथौड़े से हल्के-हल्के ठोककर, इन बर्तनों पर डिज़ाइन उकेरे जाते हैं। इन बर्तनों को बनाने की तकनीक पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है।     

कीकली

यह पंजाब का लोकनृत्य है जिसमें दो अथवा अधिक युवतियां हिस्सा लेती हैं। इसमें वे एक दूसरे का हाथ पकड़कर अपने पंजों पर खड़े होकर चक्करी की भांति घूमती हैं। यह नृत्य के बजाय खेल अधिक प्रतीत होता है। युवतियां सिर पर रंगीन दुपट्टा बांधकर कीकली डालती हैं। युवतियों द्वारा पहनी गईं पायलों की झंकार इस नृत्य में अतिरिक्त माधुर्य जोड़ती है।

कीकली

भांगड़ा

पंजाब का जोश से भरपूर पारंपरिक नृत्य भांगड़ा किसानों की दैनिक गतिविधियों पर आधारित होता है। रंग-बिरंगे परिधानों में कलाकार, पारंपरिक संगीत तथा ढोल, इकतार एवं चिमटा की धुन पर भांगड़ा करते हैं। यह पंजाब के बेहद लोकप्रिय लोकनृत्यों में से एक है जो पुरुष कलाकारों द्वारा किया जाता है। वास्तव में, यह बैसाखी के आयोजन के दौरान किया जाता है जो इस राज्य का कृषि प्रधान पर्व है। यद्यपि, वर्तमान में इस नृत्य का आयोजन अनेक उत्सवों पर किया जाने लगा है और यह पॉप कल्चर का हिस्सा बन गया है। इस नृत्य की शैली का इतिहास यह है कि इसकी उत्पत्ति ईसा पूर्व 20वीं सदी में इंडो-अरबी काल के दौरान पंजाब में हुई थी। भांगड़ा में गाए जाने वाले गीतों के विषय सामाजिक मुद्दे, धन, प्रेम, विवाह इत्यादि होते हैं।   

भांगड़ा

गिद्दा

महिलाओं द्वारा किए जाने वाला गिद्दा एक ऐसा नृत्य है जिसमें कलाकार गोला बनाकर खड़े होते हैं। एक महिला गोले के बीच में बैठकर ढोलक बजाती है। इस नृत्य में पंजाब की ग्रामीण महिलाओं का जीवन दर्शाया जाता है तथा यह नृत्य फसलों की बुवाई व कटाई के दौरान किया जाता है। किंवदंती के अनुसार, गिद्दा की उत्पत्ति रिंग डांस से हुई थी जो प्राचीन समय में पंजाब में बेहद प्रचलित था।  

गिद्दा