लोथल इतिहासकारों के लिए रुचिकर जगह रही है। प्राचीन अवशेषों से परिपूर्ण यह क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से संबंधित खुदाई की गई जगहों में से एक है। यह सिंधु घाटी सभ्यता की संरचना एवं आवासीय कार्यों पर गहन प्रकाश डालता है। यद्यपि ऐसा कहा जाता है कि लोथल का संबंध द्रविड़काल से था, हाल ही में पाए गए सामान इसके वेदों एवं संस्कृत शास्त्रों के साथ इसके संबंध को इंगित करता है। यहां एक स्थानीय संग्रहालय है, जिसमें लोथल के 4,500 वर्षों के इतिहास की जानकारी मिलती है। कोई भी उस काल के रोचक तथ्यों को आत्मसात कर सकता है।
लोथल का शाब्दिक अर्थ ‘मृतकों का घाव’ होता है जो कभी कुम्हारों का लोकप्रिय गांव हुआ करता था। यह उन लोगों द्वारा बसाया गया था जो मिट्टी के (आज के टेराकोटा के समान) बर्तन बनाते थे तथा साबरमती नदी के किनारे पर रहा करते थे। लगभग 2450 ईसा पूर्व समुद्र के रास्ते आये व्यापारियों द्वारा एक बस्ती बसाई गई थी, बाद में राजमिस्त्री, लोहार, सील तोड़ने वाले एवं कुम्हार यहां आकर रहने लगे थे। ये लोग अपने साथ तकनीक, शिल्प, समुद्र आधारित कारोबार एवं औज़ार लेकर आए। कुछ ही वर्षों में, लोथल एक प्रसिद्ध औद्योगिक केंद्र के साथ-साथ साम्राज्य का प्रमुख बंदरगाह बन गया था। यद्यपि 2350 ईसा पूर्व आई बाढ़ में सब कुछ क्षतिग्रस्त हो गया। इसका परिणाम यह निकला कि समस्त कस्बे का आरंभ से पुनर्निर्माण किया गया। अब न केवल लोथल को दोबारा बनाया गया, अपितु बचे हुए लोगों ने इसमें सुधार करते हुए किले की मुख्य दीवार को सुदृढ़ किया, कस्बे को समुद्र तल से अधिक ऊंचा बनाया, कृत्रिम गोदी तथा व्यापक गोदाम का निर्माण किया। करीब 150 वर्षों पश्चात् लोथल में फ़िर बाढ़ आई और उसे दोबारा बनाया गया। इस बार यह कस्बा एक शहर में परिवर्तित हो चुका था। तीसरी बार बाढ़ 2000 ईसा पूर्व में आई, जिसने शहर को प्रभावित किया तथा यहां के निवासी अधिक ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर चले गए थे। 1900 ईसा पूर्व में लोथल फ़िर बाढ़ में जलमग्न हो गया था, यह काल परिपक्व हड़प्पा काल कहलाता था और उक्रार हड़प्पा काल आने को था। लगभग 16वीं सदी तक यहां पर सभ्यता ख़ूब फली-फूली। समय के साथ यह शहर वीरान होता चला गया।       

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