अहमद शाह की मस्जिद

भद्रा किले की दक्षिणपश्चिम दिशा में बनी यह मस्जिद सुल्तान अहमद शाह द्वारा बनवाए गए वास्तुकला के अद्भुत उदाहरणों में से एक है। इसका निर्माण 1414 में करवाया गया था, जो अहमदाबाद की प्राचीन मस्जिदों में से एक है। यहां के प्रार्थना कक्षों, जो मेहराब कहलाते हैं, के फ़र्श काले व सफेद संगमरमर से बने हैं, जिन पर व्यापक रूप से नक्काशी की गई है। सभी प्रार्थना कक्षों में पत्थर के स्तंभ बने हैं तथा छत पर जाली का काम व अलंकृत नक्काशी की गई है। प्रत्येक प्रार्थना कक्ष में गुंबद की भांति बने हुए हैं। 
मस्जिद की पूर्वोक्रार दिशा में महिलाओं के लिए एक अलग से प्रार्थना कक्ष बना हुआ है जो जनाना कहलाता है। यह मस्जिद इसी उद्देश्य से बनाई गई थी कि राजपरिवार के सदस्य यहां प्रार्थना कर सकें। वर्तमान में यह मस्जिद पर्यटकों के प्रमुख आकर्षणों में से एक है।        

अहमद शाह की मस्जिद

हठीसिंह जैन मंदिर

यह मंदिर 15वें जैन तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के सम्मान में 1848 ईस्वीं में बनाया गया था। हठीसिंह केसरीसिंह नामक कारोबारी ने 8 लाख रुपए में इस मंदिर का निर्माण उस समय करवाया था, जब राज्य में अकाल पड़ा हुआ था। इसके निर्माण में सैकड़ों श्रमिकों एवं कलाकारों को इसलिए काम पर लगाया गया ताकि अकाल की संकटग्रस्त परिस्थिति में उनकी मदद हो सके। इनमें से अधिकतर कलाकार सोमपुरा एवं सलत समुदाय से थे। वे विशेषकर हिंदू व जैन मंदिरों में मूर्तिकला एवं पत्थरों पर नक्काशी जैसे शिल्प कौशल के लिए प्रसिद्ध होते हैं। दुर्भाग्यवश, केसरीसिंह जो उस समय 49 वर्ष के थे, उसका निधन मंदिर के निर्माण के बीच में ही हो गया था। तब उसकी पत्नी सेठानी हरकुंवर ने निर्माणकार्य का निरीक्षण किया और इसे सम्पन्न कराया। अन्य जैन मंदिरों की भांति यह भी सफेद संगमरमर से बना है जिस पर पेचीदा नक्काशी की गई है। इसमें एक मंडप भी है जिसके शिखर पर एक गुंबद बना हुए है जो 12 अलंकृत स्तंभों पर टिका हुआ है। इस मंडप के पूर्वी दिशा के अंत में गर्भगृह (मुख्य मंदिर) स्थित है, जहां से तीन बहुत प्रभावशाली नक्काशीदार मीनारों तक पहुंचा जा सकता है। यह अन्य तीर्थंकरों के 52 छोटे मंदिरों से घिरा हुआ है। मंदिर की तीन बाहरी दिशाओं में बरामदे हैं, जिनमें अंलकृत स्तंभ बने हुए हैं। हाल ही में मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने प्रांगण में महावीर स्तंभ नामक 78 फुट ऊंचे स्तंभ का निर्माण कराया गया, जो देखने में राजस्थान के चिक्राड़ के प्रसिद्ध स्तंभ की भांति लगता है। इस स्तंभ पर अनेक रूपांकन बने हुए हैं, जो मुग़लकाल की मीनारों में से एक की याद दिलाएगा। किंवदंती के अनुसार इस पावन मंदिर में पिछले 170 वर्षों से अधिक समय से एक दीप जल रहा है।

हठीसिंह जैन मंदिर

अडालज की बावड़ी

गुजरात की सुंदर बावड़ियों में से एक अडालज वाव अहमदाबाद के उक्रार में 19 किलोमीटर दूर स्थित है। इसका निर्माण रानी रुदादेवी ने 1499 में अपने पति की याद में करवाया था, जो वाघेला साम्राज्य के प्रमुख वीरसिंह की पत्नी थीं। किंवदंती के अनुसार, 15वीं सदी में राणा वीरसिंह इस क्षेत्र पर शासन किया करते थे। उस समय यह इलाका दांडई देश के नाम से जाना जाता था। उनके साम्राज्य में हमेशा से ही पानी की किल्लत झेलनी पड़ती थी तथा उन्हें बारिश पर निर्भर रहना पड़ता था। तब राजा ने आदेश दिया कि इलाके में बड़ा एवं गहरा कुआं बनाया जाए। इससे पहले की कुएं का निर्माण कार्य पूरा होता पड़ोसी मुस्लिम शासक मोहम्मद बेगडा ने दांडई देश पर आक्रमण कर दिया, जिसमें वीरसिंह मारा गया। यद्यपि उसकी विधवा सती होना चाहती थी (उस समय यह प्रथा थी कि जिस महिला के पति की मृत्यु हो जाती थी, तब वह जलती चिता में भस्म हो जाती थी) किंतु बेगडा ने उसे ऐसा करने से रोक दिया और कहा कि वह उससे विवाह करना चाहता है। रानी ने एक शर्त पर उसकी बात मानी कि पहले वह कुएं का निर्माणकार्य पूरा करवाए। बेगडा ने उसकी शर्त मान ली और कुएं का निर्माण तय समय में हो गया। रानी के मन में कुछ और ही विचार आ रहे थे। सबसे पहले उसने प्रार्थना करते हुए पूरे कुएं की परिक्रमा की और फ़िर कुएं में छलांग लगा दी ताकि वह अपने पति से एकाकार हो सके। इस बावड़ी की विशेषता यह है कि इसके तीन प्रवेश द्वार उस मंच के नीचे जाते हैं जो 16 स्तंभां पर टिका हुआ है। सीढ़ियों वाले ये तीनों प्रवेश द्वार भूतल की ओर जाते हैं और ऊपर अष्टकोणीय छत बनी हुई है। सभी 16 स्तंभों के किनारों पर मंदिर बने हैं। यह बावड़ी पांच तल गहरी है। इस बावड़ी में इष्टदेवों के अलावा माखन निकालने के लिए मंथन करती महिलाओं से लेकर दर्पण में स्वयं को निहारतीं महिलाओं तक की आकृतियां उकेरी गई हैं। इस बावड़ी में श्रद्धालु एवं व्यापारी शरण लिया करते थे। ऐसा माना जाता है कि गांव वाले यहां पानी लेने तथा देवी-देवताओं की पूजा करने आते थे। वास्तुकला एवं पुरातात्विक विशेषज्ञों का मानना है कि अष्टकोणीय छत के कारण हवा व सूरज की रोशनी इसमें प्रवेश नहीं कर पाती। इस कारण बावड़ी के अंदर का तापमान बाहर की अपेक्षा अधिक ठंडा रहता है। यह वाव इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें जैन धर्म से संबंधित प्रतीक भी बने हुए हैं जो उस काल को दर्शाते हैं जब इसका निर्माण हुआ था। यहां पर कल्पवृक्ष (जीवन का पेड़) एवं अमी खुम्बोर (जीवन के जल वाला कटोरा) नक्काशी देखने लायक हैं, जो पत्थर की एक ही शिला पर उकेरे गए हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि कुएं के किनारे पर बनी नवग्रहों की छोटी आकृतियां इसकी बुरी आत्माओं से रक्षा करती हैं।

अडालज की बावड़ी

साबरमती गांधी आश्रम

साबरमती गांधी आश्रम भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए अहिंसावादी अभियान का मुख्य केंद्र रहा था। उनकी आभा मंडल अब भी इस आश्रम में विद्यमान है। कोई भी यहां पर भ्रमण करके उनकी विचारधारा एवं उल्लेखनीय जीवन के विशिष्ट पहलुओं से परिचित हो सकता है। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, दक्षिण अफ्ऱीका से लौटकर गांधीजी ने अपना पहला आश्रम 25 मई, 1915 को कोचरब बंगले को बनाया था जो उनके वकील मित्र जीवनलाल देसाई का था। तब यह सत्याग्रह आश्रम कहलाता था। यद्यपि महात्मा गांधी की योजना पशुपालन और कृषि जैसी विभिन्न गतिविधियां चलाना चाहते थे, अतः उन्हें व्यापक जगह की आवश्यकता थी। 17 जून, 1917 को साबरमती नदी के किनारे 36 एकड़ भूमि पर नया आश्रम बनाया गया, इसलिए यह साबरमती आश्रम कहलाया।उनके अहिंसावादी अभियान के अलावा दांडी मार्च, जिसका आरंभ यहीं से हुआ था, से संबंधित दस्तावेज़ गांधी स्मारक संग्रहालय पर प्रदर्शित किए गए हैं। यहां पर एक पुस्तकालय भी है, जिसमें गांधीजी से संबंधित साहित्य रखा गया है। इनमें उनके द्वारा लिखे गए पत्रों का विशाल संग्रह सम्मिलित है, जो उपयोग में लाए गए काग़ज़ों पर लिखे गए थे। इस आश्रम के साथ हृदयकुंज, जहां पर गांधीजी रहा करते थे, विनोबा-मीरा कुटीर, जो अतिथि-गृह, प्रार्थना मैदान एवं एक भवन जिसका उपयोग कुटीर उद्योग के प्रशिक्षण केंद्र के रूप में किया जाता था भी स्थित है। इस आश्रम में गांधीजी कृषि में हाथ आजमाया करते थे, कताई व बुनाई की कला सीखते थे तथा खादी का उत्पादन किया करते थे। कुछ वर्षों पश्चात् उन्होंने इस आश्रम की देखरेख का काम हरिजन सेवक संघ के हाथों में सौंप दिया था। इसके निकट पर्यावरण स्वच्छता संस्थान तथा दुकान कलम कुश स्थित है, जहां पर चरखे के अतिरिक्त हाथ से बने काग़ज़ का उत्पादन व विक्रय किया जाता है। यहां पर खादी स्टोर हैं तथा खादी कातने की कार्यशाला भी आयोजित की जाती है।           

साबरमती गांधी आश्रम