यह मंदिर 15वें जैन तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के सम्मान में 1848 ईस्वीं में बनाया गया था। हठीसिंह केसरीसिंह नामक कारोबारी ने 8 लाख रुपए में इस मंदिर का निर्माण उस समय करवाया था, जब राज्य में अकाल पड़ा हुआ था। इसके निर्माण में सैकड़ों श्रमिकों एवं कलाकारों को इसलिए काम पर लगाया गया ताकि अकाल की संकटग्रस्त परिस्थिति में उनकी मदद हो सके। इनमें से अधिकतर कलाकार सोमपुरा एवं सलत समुदाय से थे। वे विशेषकर हिंदू व जैन मंदिरों में मूर्तिकला एवं पत्थरों पर नक्काशी जैसे शिल्प कौशल के लिए प्रसिद्ध होते हैं। दुर्भाग्यवश, केसरीसिंह जो उस समय 49 वर्ष के थे, उसका निधन मंदिर के निर्माण के बीच में ही हो गया था। तब उसकी पत्नी सेठानी हरकुंवर ने निर्माणकार्य का निरीक्षण किया और इसे सम्पन्न कराया। अन्य जैन मंदिरों की भांति यह भी सफेद संगमरमर से बना है जिस पर पेचीदा नक्काशी की गई है। इसमें एक मंडप भी है जिसके शिखर पर एक गुंबद बना हुए है जो 12 अलंकृत स्तंभों पर टिका हुआ है। इस मंडप के पूर्वी दिशा के अंत में गर्भगृह (मुख्य मंदिर) स्थित है, जहां से तीन बहुत प्रभावशाली नक्काशीदार मीनारों तक पहुंचा जा सकता है। यह अन्य तीर्थंकरों के 52 छोटे मंदिरों से घिरा हुआ है। मंदिर की तीन बाहरी दिशाओं में बरामदे हैं, जिनमें अंलकृत स्तंभ बने हुए हैं। हाल ही में मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने प्रांगण में महावीर स्तंभ नामक 78 फुट ऊंचे स्तंभ का निर्माण कराया गया, जो देखने में राजस्थान के चिक्राड़ के प्रसिद्ध स्तंभ की भांति लगता है। इस स्तंभ पर अनेक रूपांकन बने हुए हैं, जो मुग़लकाल की मीनारों में से एक की याद दिलाएगा। किंवदंती के अनुसार इस पावन मंदिर में पिछले 170 वर्षों से अधिक समय से एक दीप जल रहा है।

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