संगमरमर से बना यह सुंदर मकबरा मिर्ज़ा गियास बेग को समर्पित था, जो मुग़ल रानी नूरजहां के पिता थे। उन्हें एत्माद-उद-दौला (राज्य का स्तंभ) के खि़ताब से नवाज़ा गया था जब वह जहांगीर के दरबार में वज़ीर थे। ऐसा माना जाता है कि नूरजहां ने अपने पिता की याद में इस मकबरे का निर्माण 1622 से 1628 ईस्वी के बीच करवाया था।

ऐसी दंतकथा है कि मिर्ज़ा गियास बेग एक निर्धन फ़ारसी कारोबारी था। वह जब अपनी पत्नी सहित भारत आ रहे थे तब उनकी पत्नी ने रास्ते में एक लड़की को जन्म दिया। यह परिवार गरीबी से जूझ रहा था, ऐसी हालत में मां-बाप ने बच्ची को रास्ते में ही छोड़ने का फैसला लिया। लेकिन बच्ची का असहाय रूप से रोना सुनकर उन्हें मजबूरन लौटना पड़ा। जैसे ही वे बच्ची को लेकर लौटने लगे, वह परिवार के लिए सौभाग्यशाली साबित हुई। जल्दी ही उन्हें एक ऐसा कारवां मिला जो उन्हें मुग़ल बादशाह अकबर के दरबार में ले गया। समय बीतने के साथ, बेग तरक्की करके मुग़ल दरबार में वज़ीर तथा वफ़ादार खजांची बन गए। अकबर की मौत के बाद, जहांगीर के शासनकाल में भी बेग लगातार तरक्की करते रहे। जहांगीर ने उन्हें एत्माद-उद-दौला की उपाधि से नवाज़ा और यहां तक कि उनकी बेटी से निकाह भी किया।            

यमुना नदी के किनारे पर बने इस मकबरे का वास्तुशिल्प स्पष्ट रूप से फ़ारसी वास्तुकला से प्रभावित लगता है। इसे बनाने में सफेद संगमरमर का उपयोग किया गया था तथा उसमें अर्ध-बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए हैं। स्थानीय दंतकथाओं के अनुसार कइयों ने इसे सफेद संगमरमर के ताजमहल के अग्रदूत के रूप में माना था। इसलिए तो कभी-कभार इसे ‘छोटा ताजमहल’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में पहले से बने लाल बलुआ पत्थरों के मकबरों की अपेक्षाकृत इसमें बनीं संगमरमर की जालियां से अधिक मुलायम हवा आती है। यह पहली ऐसी मुग़ल संरचना थी, जिसमें पच्चीकारी की गई थी तथा पहला ऐसा मकबरा था, जो यमुना नदी के किनारे पर बना था। इसके बनने तक इसमें आराम बागों की श्रृंखला शामिल थी। 

चीनी का रोजा एवं महताब बाग एक दूसरे के निकट हैं तथा कुछ ही घंटों में घूमकर तीनों को तुरंत देखा जा सकता है। 

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