आगरा शहर अपने समृद्ध पारंपरिक हस्तशिल्प के लिए जाना जाता है और इनमें से अधिकांश शिल्पों के पीछे एक गहरा और दिलचस्प इतिहास है। आगरा के विभिन्न शासकों के प्रभाव को आकर्षित करते हुए, इन शिल्पों ने आज तक अपनी शाही आभा बरकरार रखी है।

संगमरमर का जड़ित काम

आगरा संगमरमर पर जड़ाऊ कार्य के लिए प्रसिद्ध है जो पत्थर को काटकर किया जाता है। आगरा पच्चीकारी के लिए भी प्रसिद्ध है। इसमें महीन नक्काशी का कार्य किया जाता है। इस कला का उत्थान मुग़लकाल के दौरान हुआ विशेषरूप से ताजमहल के निर्माण के बाद। इस तकनीक में पत्थर व संगमरमर रंगीन आकार में काटे जाते हैं। तत्पश्चात् इन्हें संगमरमर की वस्तु में पहले से बने खांचों में डाल दिया जाता है जो फूलों की पंखुड़ियों एवं पत्तियों के आकार के होते हैं। जब इन्हें जोड़कर तैयार किया जाता है तब यह संपूर्ण फूल अथवा पशु की आकृति बन जाती है।

ऐसा माना जाता है कि यह इतालवी कला जिसे पच्चीकारी कहा जाता है, उसी के समान होती है। इसकी शुरुआत 16वीं सदी में हुई थी। यूरोप से भारत आए यात्रियों के साथ यह कला भारतीय उपमहाद्वीप में आई थी, जिन्होंने इस कला से सम्राट शाहजहां को प्रभावित किया था। ताजमहल पच्चीकारी का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें फूलों की आकृतियां उकेरी गई हैं। 350 वर्षों से यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। अमीर खुसरो के मकबरे में भी पच्चीकारी की गई है।  

संगमरमर का जड़ित काम

चमड़े का कार्य

आगरा के बाज़ार एवं गलियां कारीगरों द्वारा बनाए गए चमड़े के सामान से पटे पड़े हैं तथा दुकानों में बेचे जाते हैं। यह उद्योग यहां के जीवन का अभिन्न अंग है। यह मुग़लकाल की देन है। दंतकथा के अनुसार एक बार अकबर ने फरमान जारी किया कि उसके सभी सैनिक जूते पहनेंगे। इस आदेश को मानने के लिए सभी जूते बनाने वालों को आगरा बुलाया गया। बस तभी से यहां पर चमड़े का सामान बनाने का काम आरंभ हुआ। कुछ सैनिक तो चमड़े से बनी ढालों का भी इस्तेमाल करते थे। वर्तमान में इस शहर में चमड़े का सामान बनाने वाली अनेक लघु इकाइयां विद्यमान हैं। यहां पर स्थित सरकारी चमड़ा संस्थान एशिया का सबसे बड़ा जूता निर्माता संस्थान हैं। आप यहां से जूते, बेल्ट, पर्स और बैग ख़रीद सकते हैं। सदर बाज़ार चमड़े का सामान ख़रीदने का सबसे उपयुक्त बाज़ार है। किनारी बाज़ार, मुनरो रोड तथा शिल्पग्राम शिल्प गांव से चमड़े का सामान ख़रीद सकते हैं।   

कांच का काम

कांच का काम सदियों पुराना है जिसे शीशा अथवा अभाला भारत कढ़ाई के नाम से जाना जाता है। इसमें विभिन्न आकार जैसे गोलाकार, चौकोर, तिकोने, बहुभुज एवं षट्कोण के कांचों का उपयोग किया जाता है। इन्हें टांकों वाली कढ़ाई द्वारा पोशाकों पर टांका जाता है। इसमें विभिन्न प्रकार के कपड़ों जैसे रेशमी, शिफॉन, सूती, क्रेप या जोर्जेट का उपयोग होता है। इससे साड़ी, कुशन कवर, सलवार कमीज़ एवं बेल्ट जैसी आकर्षक वस्तुएं बनाई जाती हैं। इसकी उत्पत्ति 17वीं सदी में ईरान में हुई थी। मुग़लकाल के दौरान यह विभिन्न यात्रियों द्वारा भारत लाई गई।

कांच का काम

ज़र्दोज़ी

यह एक प्रकार की कढ़ाई होती है जो धातुओं के धागों से की जाती है और यह कढ़ाई आगरा की विशेषता है। कभी इनका उपयोग राजे-महाराजे एवं महारानियां किया करती थीं। इसके अलावा राजशाही टैंटों, वॉल हेंगिंग तथा शाही अश्वों की काठी पर भी इनका उपयोग किया जाता था। इसमें सोने एवं चांदी के धागों से भी कढ़ाई की जाती है। पोशाक की सुंदरता बढ़ाने के लिए इसमें बहुमूल्य रत्न एवं हीरे भी टांके जाते हैं।

इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी किया गया है। उस समय भगवान की पोशाकों पर ज़री का काम किया जाता था। उस समय विशुद्ध स्वर्ण की पत्तियों एवं चांदी की तारों का उपयोग किया जाता था। वर्तमान में तांबे की तारों पर सोने व चांदी का पानी चढ़ाकर कढ़ाई की जाती है। यह शब्द फारसी भाषा के दो शब्दों ‘ज़र’ जिसका अर्थ स्वर्ण होता है तथा दोज़ी जिसका मतलब कढ़ाई होता है, से मिलकर बना है। अकबर के शासनकाल में 17वीं शताब्दी में इसके चलन में बहुत बढ़ोतरी हुई। आजकल इसका इस्तेमाल लहंगा, साड़ियों, सलवार कमीज़ एवं जूतियों पर भी होता है।     

ज़र्दोज़ी